लेखक- धर्मपाल गाँधी
मानवता की मिसाल : देश और दुनिया में बहुत सी महान विभूतियों ने जन्म लिया है, जिन्होंने जीवनभर खुद कष्ट झेलकर दूसरों को सुख प्रदान करने के लिए महान कार्य किये हैं। महान लोगों के जीवन का मुख्य उद्देश्य देश और दुनिया में सुख-शांति की स्थापना करने के साथ समाज को सही मार्ग दिखाने का होता है। महान विभूतियां संसार में लोगों की सेवा करने के लिए जन्म लेती हैं। ऐसी ही एक महान विभूति का जन्म अविभाजित भारत के लाहौर शहर में हुआ था, जिनका नाम आशा देवी आर्यनायकम था। आशा देवी स्वतंत्रता सेनानी और महान सामाजिक कार्यकर्ता थीं। आशा देवी आर्यनायकम एक मानवता की मिसाल थीं, जिन्होंने अनभिज्ञता को दूर करने और ज्ञान, प्रेम और विश्वास से भरी दुनिया बनाने का इमानदारी से प्रयास किया। उन्हें रविंद्र नाथ टैगोर और महात्मा गाँधी जैसी महान हस्तियों के साथ काम करने का मौका मिला। उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य हर वर्ग के लोगों को शिक्षित करने के साथ ज्ञान बढ़ाने और समाज में शांति व भाईचारा स्थापित करने का था। आशा देवी का मानना था कि शिक्षा और ज्ञान के बिना कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र नहीं रह सकता है। शिक्षा के दम से ही स्वतंत्रता संभव है। आशा देवी आर्यनायकम एक ऐसी शिक्षाविद् थीं, जो अपने विद्यार्थियों का ज्ञान बढ़ाने के लिए सदैव नवीन तरीकों की खोज करती रहती थीं। वह महात्मा गाँधी की नई तालीम या बुनियादी शिक्षा या सीखने की कार्यप्रणाली से आकर्षित थीं। आशा देवी आर्यनायकम 1954 में प्रथम पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित होने वाली महिला थी।
आशा देवी आर्यनायकम का जन्म 1 जनवरी 1901 को तत्कालीन ब्रिटिश भारत और वर्तमान पाकिस्तान के लाहौर शहर में हुआ था। उनके पिता फणी भूषण अधिकारी और माता सरजूबाला देवी दोनों शिक्षाविद् और धर्मनिष्ठ, धार्मिक लोग थे, जो भक्ति पंथ को मानते थे। आशा देवी के पिता दिल्ली में प्रोफेसर थे। उन्होंने अपना बचपन लाहौर और फिर बाद में बनारस में बिताया। बनारस में अच्छे शैक्षिक अवसर थे। लेकिन कोई बंगाली माध्यम स्कूल नहीं था। उनकी मां ने उन्हें बंगाली के साथ-साथ संगीत भी सिखाया। मैट्रिक में सफल उम्मीदवारों की सूची में वह शीर्ष पर रहीं। अखबार के पत्रकार उनकी तस्वीर और विवरण लेने के लिए दौड़ते हुए उनके घर तक आये। लेकिन उनके पिता को पब्लिसिटी पसंद नहीं थी। उन्होंने पत्रकारों को यह कहते हुए वापस भेज दिया कि “प्रत्येक छात्र का कर्तव्य है कि वह अध्ययन करे। उच्च अंक को जीवन में एक बड़ी उपलब्धि नहीं माना जाना चाहिए। प्रचार से यह संभव है कि वह छात्र अपने कर्तव्य को भूल जाये।” उनकी कॉलेज की पढ़ाई भी घर पर ही हुई थी। उनके लिए एक संगीत शिक्षक नियुक्त किया गया था। बी.ए. की परीक्षा के दौरान आशा देवी को एक आँख में परेशानी हो गई। डॉक्टरों ने सुझाव दिया कि उन्हें अपनी आँखों को आराम देना चाहिए, अन्यथा वह अंधी हो सकती है। वह बहुत दुविधा में थी। आखिरकार उनकी मां ने इसका हल ढूंढ निकाला। उन्होंने अपनी बेटी को पाठ पढ़ाना शुरू किया। वह फर्स्ट डिवीजन से पास हुई। सरकार ने उन्हें इंग्लैंड में उच्च अध्ययन के लिए जाने के लिए छात्रवृत्ति की पेशकश की। उस समय वह सिर्फ 16 साल की थी और माता-पिता उन्हें विदेश भेजना पसंद नहीं करते थे। इसके बाद आशा देवी ने बनारस में फर्स्ट डिवीजन से एम.ए. पास किया और वीमेंस कॉलेज में लेक्चरर बन गई। आशा देवी आर्यनायकम का लाहौर और बनारस से गहरा संबंध रहा है। बनारस के बाद आशा देवी रविंद्र नाथ टैगोर के पास शांतिनिकेतन चली गई। आशा देवी आर्यनायकम का परिवार रवींद्रनाथ टैगोर के करीब था और शांतिनिकेतन उनके लिए उनके घर जैसा था। उन्हें उत्तरायण के पास एक घर दिया गया, जहां टैगोर रहते थे। टैगोर को यूरोप जाना था और उन्होंने अपनी अनुपस्थिति में आशा देवी को शांतिनिकेतन में लड़कियों की जिम्मेदारी सौंपी। इसलिए वह शांतिनिकेतन स्टाफ में शामिल हो गईं। आशादेवी शांतिनिकेतन में बहुत लोकप्रिय हो गई थीं, वहां पर हर कोई उन्हें ‘दीदी’ कहता था। यूरोप में, टैगोर ई.आर.डब्ल्यू. आर्यनायकम (आशा देवी के भावी पति) से मिले, जो सीलोन के निवासी थे।
टैगोर ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें शांतिनिकेतन आने के लिए आमंत्रित किया। वह टैगोर के निजी सचिव बन गये और शांतिनिकेतन में अन्य सभी गतिविधियों में भी भाग लिया। शांतिनिकेतन में रहते हुए आशा देवी ने श्रीलंकाई ई.आर.डब्ल्यू आर्यनायकम से शादी कर ली। दंपति के दो बच्चे एक लड़का व एक लड़की हुई। आशा देवी महात्मा गाँधी से बहुत प्रभावित थीं। वह उनके साथ स्वाधीनता आंदोलन और सामाजिक उत्थान में साथ मिलकर कार्य करना चाहती थीं। शांतिनिकेतन के शांत वातावरण में आशा देवी ने गाँधी जी की पुकार सुनी। उनके समझ में आ गया कि शांतिनिकेतन में गरीबों के बच्चों के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए वे और उनके पति शांतिनिकेतन छोड़कर वर्धा चले गये, जहां उन्होंने पहले मारवाड़ी विद्यालय में काम किया और फिर बापू के साथ जुड़कर नई तालीम के मुख्य स्तंभ बन गये। नई तालीम की पद्धति में छात्रों के लिए शिक्षा बोझ नहीं थी और न ही परीक्षाओं की ज्यादा तैयारी करने की जरूरत होती थी। इस योजना में अत्यंत बुद्धिमान और मानसिक रूप से मंद सभी शामिल हो सकते थे। महात्मा गाँधी द्वारा परिकल्पित नई तालीम, उनके “अच्छे समाज” की अपनी दृष्टि का एक अभिन्न अंग थी; “उनके सपनों का भारत”। 1937 की उनकी “बुनियादी राष्ट्रीय शिक्षा” की योजना भारतीय बच्चों को एक राष्ट्रीय समाज में भागीदारी के लिए बुनियादी तैयारी के रूप में बनाई गई थी, जिसका उद्देश्य अपने जीवन के हर पहलू, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, को सत्य और अहिंसा पर आधारित करना था- दूसरे शब्दों में, मौजूदा व्यवस्था से पूरी तरह अलग एक नई सामाजिक व्यवस्था।
महात्मा गाँधी की बुनियादी शिक्षा पद्धति से कोई भी बेरोज़गारी से ग्रसित नहीं हो सकता था। सबसे पहले नई तालीम को हिंदुस्तानी तालीमी संघ के नाम से जाना जाता था, उसके बाद जैसे-जैसे स्वरूप बदलता गया वैसे-वैसे नाम भी बदलता गया। 1937 में जब वर्धा में हुए कांग्रेस सम्मेलन में बुनियादी शिक्षा की संकल्पना उभरी, तो देश के लोगों ने इस संकल्पना का खुलकर स्वागत किया था। इस अधिवेशन में महात्मा गाँधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, आचार्य विनोबा भावे, आशा देवी आर्यनायकम, काका साहेब कालेलकर, आचार्य जे.बी. कृपलानी, डॉ. जाकिर हुसैन, डॉ. श्रीकृष्ण सिंह, डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह, ई.आर.डब्ल्यू.आर्यनायकम, जयराम दास दौलतराम आदि स्वनामधन्य लोग उपस्थित हुए थे। नई शिक्षा योजना, अखिल भारतीय शिक्षा सम्मेलन 22 और 23 अक्टूबर 1937 को वर्धा में आयोजित किया गया था। गाँधी जी ने अधिवेशन का कार्य संपादित किया और बुनियादी विद्यालयों की नींव भी रखी। जहां छात्रों को सूत कताई, कपड़ा बुनाई, लोहारगिरी, बढ़ईगिरी, कृषि कार्य, बागवानी और झाड़ू-टोकरी आदि बनाने में कुशल बनाया जाता था। यह सब लेकर 1939 में जब गाँधी जी बिहार के वृंदावन गये तो बुनियादी विद्यालय के साथ-साथ रचनात्मक कार्यक्रम (लघु उद्योग) की शुरुआत हुई। जिससे आस-पास के गाँवों की महिलाओं को रोज़गार प्राप्त हुआ। यहां पर तेल पेराई, गुड़ निर्माण, साबुन बनाने का काम बड़े पैमाने पर होता था। यह विद्यालय ज्ञान, कर्म और श्रम का सामंजस्य बिठाने के लिए खोले जा रहे थे। नई तालीम या बुनियादी शिक्षा की पूरी जिम्मेदारी आशा देवी आर्यनायकम और उनके पति ने संभाली। आशा देवी का सपना था कि गरीबों के बच्चों को शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाये जायें। उन्होंने गाँधी जी के साथ रहते हुए शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये। इस दौरान आशा देवी को एक बड़ी व्यक्तिगत त्रासदी का सामना करना पड़ा, जब उन्होंने सेवाग्राम में अपने इकलौते बेटे आनंदमोहन को खो दिया। हालांकि, आर्यनायकम दंपति ने अपने दुख और पीड़ा को दूर करने के लिए सेवाग्राम के बेसिक स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के करीब जाकर समय बिताया। महात्मा गाँधी के करीब रहकर उन्होंने देश की आजादी और समाज सेवा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
बापू की हत्या के बाद आशा देवी आर्यनायकम फरीदाबाद चली गईं और उन्होंने फरीदाबाद में शरणार्थियों की देखभाल की। देश विभाजन के समय उत्तरी पश्चिमी सीमांत प्रांत के छह जिलों (अब पाकिस्तान में) बन्नू, पेशावर, हजारा, मर्दान, कोहाट और डेरा इस्माईल खान से विस्थापित होकर आए करीब 50 हजार लोगों को बसाने में और उनको रोजगार देकर अपार संभावनाओं का शहर फरीदाबाद बसाने में पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ मिलकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पंडित नेहरू ने दिल्ली के निकट एनआइटी फरीदाबाद के नाम से नया शहर बसाने की स्वीकृति दी थी और 17 अक्टूबर-1949 को एनआइटी का जन्म हुआ। अखिल भारतीय तालीमी संघ की संयुक्त सचिव आशा देवी आर्यनायकम ने एनएच पांच में जहां आज आइटीआई स्थित है, इस स्थान पर 17 अक्टूबर 1949 के दिन खुदाई खिदमतगार सालार सुखराम, सरदार गुरबचन सिंह, भारतीय सहकारिता यूनियन के मुख्य संगठनकर्ता एलसी जैन व अन्य बुजुर्गो के साथ फावड़े चला कर शहर स्थापित करने की शुरुआत की थी। आशा देवी आर्यनायकम ने फरीदाबाद में रहते हुए बच्चों के लिए स्कूल शुरू किये। बाद में उन्हें विनोबा भावे के ‘भूदान आंदोलन’ ने प्रेरित किया और उन्होंने भूदान आंदोलन में भाग लिया। वह महात्मा गाँधी के सेवाग्राम आश्रम और विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से गहराई से जुड़ी हुई थीं। 1954 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया। आशा देवी आर्यनायकम का नाम प्रथम पद्म श्री सम्मान पाने वालों की सूची में शामिल है। वर्षों बाद उनके पति की सीलोन में अपने गाँव वापस जाने की तीव्र लालसा हुई। वहां उन्हें दिल का दौरा पड़ गया और 20 जून 1968 को उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद आशा देवी आर्यनायकम सेवाग्राम में रहीं। आशादेवी ने अपनी एक आँख को ऑप्टिक शोष के कारण खो दिया। उन्हें नागपुर ले जाया गया, जहाँ उन्हें फेफड़े का कैंसर होने का पता चला। 30 जून 1972 को आशा देवी आर्यनायकम ने दुनिया को अलविदा कहा। अपना संपूर्ण जीवन मानव जाति के उत्थान में लगाने वाली महान शख्सियत को आदर्श समाज समिति इंडिया परिवार नमन करता है