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अरावली की ऊँचाई घटाने का फैसला: क्या राजस्थान का भविष्य भी छोटा किया जा रहा है?


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अरावली की ऊँचाई घटाने का फैसला: क्या राजस्थान का भविष्य भी छोटा किया जा रहा है?

अरावली की ऊँचाई घटाने का फैसला: क्या राजस्थान का भविष्य भी छोटा किया जा रहा है?

अरावली की ऊँचाई घटाने का फैसला :अरावली पर्वत श्रृंखला पर एक नई बहस खड़ी हो गई है। कहा जा रहा है कि अब 100 मीटर से कम ऊँचाई वाले पहाड़ अरावली नहीं माने जाएंगे। पहली नजर में यह एक तकनीकी और प्रशासनिक निर्णय लग सकता है, लेकिन इसके निहितार्थ राजस्थान के पर्यावरण, जल सुरक्षा और भविष्य से सीधे जुड़े हुए हैं। यह सवाल केवल भूगोल का नहीं, बल्कि नीति, नीयत और राजनीतिक प्राथमिकताओं का भी है।अरावली दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है। राजस्थान के लिए यह सिर्फ पत्थरों की शृंखला नहीं, बल्कि एक प्राकृतिक सुरक्षा कवच रही है। इसी ने सदियों से थार मरुस्थल को पश्चिम में सीमित रखा। अगर अरावली न होती, तो आज जयपुर, अलवर, भरतपुर, दौसा, सीकर और झुंझुनू जैसे इलाके भी रेगिस्तान की गिरफ्त में होते।

हर्ष यादव, गुती बुहाना (झुंझुनू)

इतिहास गवाह है कि राजस्थान की सभ्यता अरावली की गोद में पली-बढ़ी। यहीं से जल स्रोत विकसित हुए, यहीं से पारंपरिक जल प्रबंधन की वह समझ पैदा हुई जिसने बावड़ियों, तालाबों और जोहड़ों को जन्म दिया। ऐसे में किसी पहाड़ की पहचान केवल उसकी ऊँचाई से तय करना, इतिहास और प्रकृति—दोनों के साथ अन्याय है।अरावली कोई एकसार और सीधी पर्वत श्रृंखला नहीं है। यह जगह-जगह टूटी हुई, फैली हुई और अलग-अलग ऊँचाइयों में मौजूद है। कई क्षेत्रों में इसकी पहाड़ियां 50 से 80 मीटर तक ही ऊँची हैं, लेकिन उनका भूजल रिचार्ज, वर्षा संतुलन और पारिस्थितिक महत्व उतना ही गहरा है जितना ऊँची पहाड़ियों का। ऊँचाई को ही एकमात्र पैमाना बना देना अरावली के वैज्ञानिक स्वरूप को नकारने जैसा है। इस फैसले का सबसे बड़ा लाभ किसे होगा, यह समझना मुश्किल नहीं है। जिन पहाड़ियों को अब तक अरावली मानकर खनन और निर्माण से बचाया गया था, वे एक झटके में “गैर-अरावली” घोषित हो सकती हैं। इससे खनन माफिया, रियल एस्टेट और औद्योगिक लॉबी को सीधा फायदा पहुंचेगा। सवाल यह है कि क्या यह निर्णय पर्यावरण संरक्षण को ध्यान में रखकर लिया गया है, या फिर विकास के नाम पर प्रकृति को पीछे धकेलने की एक और कोशिश है?

राजस्थान पहले ही गंभीर जल संकट से गुजर रहा है। गिरता भूजल स्तर, बढ़ता तापमान और अनियमित मानसून इस बात के संकेत हैं कि प्रकृति के साथ किए गए समझौतों की कीमत अब चुकानी पड़ रही है। अरावली का कमजोर होना केवल पहाड़ों का कटना नहीं है, यह राजस्थान को धीरे-धीरे मरुस्थलीय भविष्य की ओर धकेलना है।

शेखावाटी जैसे क्षेत्रों में यह खतरा और अधिक स्पष्ट दिखाई देता है। झुंझुनू, सीकर और आसपास की छोटी पहाड़ियां भले ही ऊँचाई में कम हों, लेकिन वही इलाके को पूरी तरह बंजर बनने से रोकती हैं। यदि इन्हें अरावली की परिभाषा से बाहर कर दिया गया, तो आने वाले वर्षों में यहां पानी, खेती और जीवन—तीनों पर संकट गहराएगा। राजनीति की विडंबना यह है कि पर्यावरण संरक्षण चुनावी भाषणों में तो अहम मुद्दा बनता है, लेकिन नीतिगत फैसलों में अक्सर पीछे छूट जाता है। अरावली इस राजनीतिक विरोधाभास की सबसे बड़ी शिकार रही है। कभी अदालतें रोक लगाती हैं, कभी नियम बदले जाते हैं और कभी परिभाषाएं ही बदल दी जाती हैं।

विकास जरूरी है, इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन सवाल यह है कि किस कीमत पर? यदि विकास का अर्थ पहाड़ काटना, जल स्रोत सुखाना और आने वाली पीढ़ियों से जीवन की बुनियादी सुरक्षा छीनना है, तो ऐसे विकास पर गंभीर पुनर्विचार आवश्यक है। यह लेख इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसे राजस्थान के झुंझुनू जिले के गुती गांव के हर्ष यादव ने लिखा है। हर्ष यादव मात्र 23 वर्ष के विद्यार्थी हैं और चितकारा यूनिवर्सिटी, हिमाचल प्रदेश से इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं। यह तथ्य अपने आप में बताता है कि अरावली केवल विशेषज्ञों या पर्यावरण कार्यकर्ताओं का विषय नहीं है—बल्कि आज की युवा पीढ़ी भी इस पर गहन और जिम्मेदार चिंतन कर रही है। अरावली को बचाने की लड़ाई किसी एक वर्ग की नहीं है। यह किसानों, शहरों, युवाओं और आने वाली पीढ़ियों की लड़ाई है। 100 मीटर की एक रेखा खींचकर अरावली को कागजों में छोटा किया जा सकता है, लेकिन उससे राजस्थान की समस्याएं छोटी नहीं होंगी। आज जरूरत है कि अरावली को फाइलों और तकनीकी परिभाषाओं से बाहर निकालकर उसके वास्तविक महत्व के साथ देखा जाए। क्योंकि अरावली बचेगी, तभी राजस्थान बचेगा—और यह सच किसी भी राजनीतिक फैसले से बड़ा है।……. ज़रा सोचिए।।

हर्ष यादव, गुती बुहाना (झुंझुनू)

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