मानवता की मिसाल और दलित-आदिवासियों के मसीहा थे ठक्कर बापा
मानवता की मिसाल और दलित-आदिवासियों के मसीहा थे ठक्कर बापा

ठक्कर बापा के नाम से विख्यात अमृतलाल विट्ठलदास ठक्कर स्वतंत्रता सेनानी, संविधान सभा के सदस्य और महान सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे गरीबों व बेसहारा लोगों, दलितों और आदिवासी समाज के मसीहा थे। ठक्कर बापा और महात्मा गाँधी एक-दूसरे के घनिष्ठ सहयोगी थे, जिन्होंने छुआछूत उन्मूलन और समाज के पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए मिलकर काम किया। गाँधीजी ने अमृतलाल ठक्कर को ‘बापा’ कहकर पुकारा और उन्हें 1932 में ‘हरिजन सेवक संघ’ का महासचिव बनाया, जबकि ठक्कर बापा ने गाँधीजी द्वारा शुरू किए गए कई आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जैसे कि अस्पृश्यता के विरुद्ध एक वर्ष का अभियान, जिसकी रूपरेखा ठक्कर बापा ने तैयार की थी। ठक्कर बापा ने गाँधीजी की प्रेरणा से हरिजन और आदिवासी समुदायों के उत्थान के लिए अथक प्रयास किये, जैसे कि मंदिर प्रवेश और जलाशयों के उपयोग के अधिकार के लिए आंदोलन। गाँधीजी जब अस्पृश्यता के विरुद्ध अभियान चला रहे थे, तब ठक्कर बापा ने अभियान की रूपरेखा तैयार की और उनके साथ काम किया। 1933 में जब गाँधीजी ने हरिजन उत्थान के लिए पूरे देश का भ्रमण किया, तो ठक्कर बापा उनके साथ थे। दोनों ने समाज के सभी वर्गों में शिक्षा, स्वच्छता और एकता के महत्व पर जोर दिया। ठक्कर बापा और महात्मा गाँधी ने जगह-जगह पर हरिजनों के लिए स्कूल खुलवाए।
ठक्कर बापा ने आदिवासियों और हरिजनों के उत्थान के अपने मिशन के साथ असम के जंगलों, बंगाल के ग्रामीण इलाकों, उड़ीसा के सूखाग्रस्त इलाकों, गुजरात के भील इलाकों और सौराष्ट्र के हरिजन इलाकों, महाराष्ट्र के महार इलाकों, मद्रास के अछूतों, छोटा नागपुर के पहाड़ी इलाकों, थारपारकर के रेगिस्तान, हिमालय की तलहटी और त्रावणकोर के तटीय इलाकों का दौरा किया। वे हमेशा रेलवे के तीसरे दर्जे में यात्रा करते थे। ठक्कर बापा ने अपने जीवन के 35 वर्ष आदिवासियों और हरिजनों की सेवा में बिताये। स्वतंत्र भारत में बहुत कम लोग उनका नाम जानते हैं। महान समाज सुधारक ठक्कर बापा ने अपना सारा जीवन जिस दलित शोषित समाज पर न्यौछावर किया, आज वही समाज जब उन्हें भूला चुका है तो बाकी का भूलना कोई बड़ी बात नहीं है। आज देश में जाति व धर्म के नाम पर राजनीति हो रही है। जिन महापुरुषों ने मानवता और देश की स्वतंत्रता के लिए जीवन समर्पित किया, उनको आज भुलाया जा रहा है। लेकिन ऐसे महापुरुषों को भूलना बहुत गलत है। ठक्कर बापा गाँधीजी से दो माह छोटे थे। उन्होंने अच्छी-भली नौकरी छोड़कर दलितों व आदिवासियों के उत्थान में अपना सारा जीवन लगा दिया। बहुत कम लोगों को ये बात पता होगी कि गाँधीजी ने जब पूरे एक साल तक अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ अभियान चलाया था तो इसका सुझाव ठक्कर बापा का था और इस अभियान की रूपरेखा भी ठक्कर बापा ने ही तैयार की थी। ठक्कर बापा महात्मा गाँधी के न सिर्फ समकालीन थे बल्कि उनके अनन्य अनुयायी भी थे।

अमृतलाल ठक्कर उर्फ़ ठक्कर बापा का जन्म 29 नवंबर 1869 को ब्रिटिश भारत में तत्कालीन बॉम्बे प्रांत व वर्तमान गुजरात राज्य के सौराष्ट्र क्षेत्र के भावनगर में एक मध्यमवर्गीय लोहाना गुजराती- वैष्णव परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम विट्ठलदास लालजी ठक्कर व माता का नाम मुलीबाई था। अमृतलाल के पिताजी एक व्यवसायी और समाजसेवी थे। वह दृढ़ चरित्र के व्यक्ति थे, भावनगर में अपने समुदाय के बच्चों के लिए छात्रावास चलाते थे। सन् 1900 में अकाल के दौरान विट्ठलदास ने भावनगर में अपने समुदाय के जरूरतमंद लोगों के लिए राहत कार्य का आयोजन किया। ठक्कर बापा के लिए उनके पिता उनके पहले गुरु थे। उनकी माता मुलीबाई एक दयालु महिला थी, जो हमेशा गरीब पड़ोसियों की मदद के लिए तैयार रहती थीं। ठक्कर बापा को परोपकार और मानवता की शिक्षा घर से ही मिली थी। अमृतलाल ठक्कर ने अपनी प्राथमिक शिक्षा भावनगर और धोलेरा में पूरी की। उन्होंने एंग्लो-वर्नाक्युलर स्कूल और फिर भावनगर के अल्फ्रेड हाई स्कूल में दाखिला लिया। 1886 में उन्होंने भावनगर हाई स्कूल से मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। पूरे भावनगर राज्य में प्रथम आने पर उन्हें सर जसवंतसिंह जी छात्रवृत्ति से सम्मानित किया गया। अमृतलाल ने 1887 में पूना के इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लिया और 1890 में एलसीई (सिविल इंजीनियरिंग का लाइसेंस) की डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने काठियावाड़ रियासत पोरबंदर में एक इंजीनियर के रूप में विभिन्न पदों पर काम किया।

सन् 1900 में वे युगांडा रेलवे में तीन वर्षों तक सेवा करने के लिए पूर्वी अफ्रीका गये। युगांडा (पूर्वी अफ्रीका) से लौटने के बाद उन्होंने कुछ समय के लिए सांगली राज्य में मुख्य अभियंता के रूप में भी काम किया और फिर एक इंजीनियर के रूप में बॉम्बे नगर पालिका में कार्यरत हुए। वे उन गंदी बस्तियों को देखकर स्तब्ध रह गये, जहाँ सफाई कर्मचारियों को रहना पड़ता था। गरीब मजदूरों की यह हालत देखकर उन्होंने दृढ़ निश्चय किया कि वे अपना शेष जीवन इन लोगों की भलाई के लिए समर्पित करेंगे। इस दौरान वह गोपाल कृष्ण गोखले और धोंडो केशव कर्वे के संपर्क में आये। ठक्कर बापा कर्वे को अपने चार गुरुओं में से एक मानते थे। 1913 में अपने पिता की मृत्यु के बाद, ठक्कर बापा ने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और 6 फरवरी 1914 को सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी में शामिल हो गये और इसके तुरंत बाद उन्होंने मथुरा में अकाल राहत कार्य किया। इस दौरान, बंबई में गोपाल कृष्ण गोखले ने ठक्कर बापा का परिचय महात्मा गाँधी से कराया। तब से दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गये।
1915-16 में, ठक्कर बापा ने बंबई में सफाई कर्मचारियों के लिए सहकारी समितियों का गठन किया, अहमदाबाद में मजदूरों के बच्चों के लिए एक स्कूल खोला और कच्छ में अकाल राहत कार्य का आयोजन किया। 1917 में उन्होंने कुछ कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर गुजरात के कैरा ज़िले में राजस्व जाँच की। 1918 में बॉम्बे विधान परिषद में पेश किये गये अनिवार्य शिक्षा विधेयक के लिए आँकड़े एकत्र करने हेतु उन्होंने गुजरात-काठियावाड़ क्षेत्रों का दौरा किया। 1918-19 के दौरान, उन्होंने जमशेदपुर की टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी को मज़दूरों की स्थिति सुधारने के लिए अपनी सेवाएँ दीं। इसके अलावा, उन्होंने गुजरात के पंचमहल ज़िले में अकाल राहत का भी आयोजन किया। इस प्रकार, वे भीलों की घोर उपेक्षा और दुर्दशा को प्रत्यक्ष रूप से देख पाये। 1920 में ठक्कर बापा उड़ीसा गये, जो भयंकर अकाल की चपेट में था। उनके अकाल संबंधी कार्यों ने उड़ीसा में उनके सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की। 1921 में उन्होंने काठियावाड़ में खादी कार्य का आयोजन किया। 1922 में पंचमहल के भीलों को एक बार फिर भयंकर अकाल का सामना करना पड़ा। ठक्कर बापा ने उनका मुद्दा पुरजोर से उठाया और भीलों के उत्थान के लिए 1922 में ‘भील सेवा मंडल’ की स्थापना की। अगले 10 वर्षों तक उन्होंने भीलों का जीवन स्तर सुधारने के लिए अनेक कार्य किये। हरिजनों और आदिवासियों के उत्थान के लिए उन्होंने कई राज्यों का दौरा किया। 1926 में उन्होंने भावनगर राज्य प्रजा सम्मेलन की अध्यक्षता की और 1928 में पोरबंदर में काठियावाड़ राज्य जन सम्मेलन की अध्यक्षता की। 1929 में उन्होंने पटियाला शासक के विरुद्ध जाँच हेतु गठित जाँच समिति के अध्यक्ष के रूप में कार्य किया।
1930 में महात्मा गाँधी द्वारा शुरू किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेने के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और कठोर श्रम के साथ छह महीने जेल की सजा सुनाई गई, लेकिन लगभग चालीस दिनों के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया। 1932 में गाँधीजी के महाआमरण अनशन के दौरान, ठक्कर बापा ने पूना समझौते पर पहुँचने वाली वार्ताओं में अद्वितीय भूमिका निभाई। गाँधीजी के अनुरोध पर, ठक्कर बापा ने हरिजन सेवक संघ के महासचिव का पद स्वीकार किया। एक वर्ष से भी कम समय में, उन्होंने हरिजन सेवक संघ की 22 प्रांतीय शाखाएँ और 178 जिला केंद्र स्थापित किये। 1933-34 के दौरान, उन्होंने गाँधीजी के साथ कई महीनों तक हरिजन यात्राएं कीं। 1934 से 1937 तक वे हरिजन उत्थान कार्य में व्यस्त रहे। 1938 से 1942 तक उन्होंने आदिवासी जनजातियों और पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए सीपी और बरार क्षेत्र (सेंट्रल प्रोविजंस एंड बरार) उड़ीसा, बिहार, बॉम्बे आदि सरकारों द्वारा नियुक्त विभिन्न समितियों में काम किया। 1943-44 के दौरान उन्होंने उड़ीसा, बंगाल और मद्रास व बीजापुर जैसे भारत के अन्य भागों में अकाल राहत कार्य का आयोजन किया।
1944 में उन्होंने कस्तूरबा गांधी राष्ट्रीय स्मारक निधि का गठन किया और इस निधि के सचिव तथा बाद में ट्रस्ट के सचिव नियुक्त किये गये। उसी वर्ष, उन्होंने मध्य प्रदेश के मंडले में गोंड सेवक संघ की स्थापना की, जिसे अब ‘वनवासी सेवा मंडल’ कहा जाता है। वे 1945 में महादेव देसाई स्मारक निधि के सचिव बने। 1946 में उन्हें आदिमजाति मंडल, रांची का उपाध्यक्ष भी नियुक्त किया गया, जिसके अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे। अक्टूबर 1946 से मार्च 1947 तक, वे गाँधीजी के साथ नोआखली और पूर्वी बंगाल के अन्य जिलों में सांप्रदायिक दंगों के पीड़ितों के बीच रहे। स्वतंत्रता के बाद, वे संविधान सभा के लिए चुने गये। उन्होंने संविधान सभा में गरीब और वंचित वर्ग को विशेष अधिकार देने का प्रस्ताव रखा। संविधान में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति को आरक्षण दिलाने में ठक्कर बापा का विशेष योगदान है। उन्होंने संविधान सभा की एक समिति बहिष्कृत और आंशिक रूप से बहिष्कृत क्षेत्रों (असम के अलावा) उप-समिति के अध्यक्ष और असम उप-समिति (1947) के सदस्य के रूप में कार्य किया। वे गाँधी राष्ट्रीय स्मारक निधि के न्यासी और कार्यकारी समिति के सदस्य भी थे। 29 नवंबर 1949 को, उनके 80 वर्ष पूरे होने पर, उनके सम्मान में दिल्ली में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता सरदार वल्लभभाई पटेल ने की। सभा में उन्हें एक स्मृति ग्रंथ भेंट कर सम्मानित किया गया। स्वाधीनता के बाद ठक्कर बापा कुछ समय तक संसद के सदस्य भी रहे थे। उनकी पहल पर 24 अक्टूबर 1948 को भारतीय आदिमजाति सेवक संघ की स्थापना की गई।
ठक्कर बापा गरीबों के मसीहा, कर्मठ कार्यकर्ता और गाँधीवादी स्वतंत्रता सेनानी थे। द सर्वेंट ऑफ़ इंडिया, द हरिजन और द हिंदुस्तान टाइम्स में उनके सामयिक लेखों से, और उनकी डायरी, ‘भारत में आदिवासियों की समस्याएँ’ पर काले स्मृति व्याख्यान (1941) और उनकी पुस्तक ‘ट्राइब्स ऑफ़ इंडिया’ (1950) के पन्नों से, एक ऐसे प्रेमपूर्ण मानव की छाप मिलती है, जिसने गहन अध्ययन और वैज्ञानिक पद्धति के साथ अथक परिश्रम किया। प्यारेलाल के शब्दों में, “वह स्वतंत्रता की मूल भावना को उन लोगों के संदर्भ में समझना अधिक पसंद करते हैं, जिनके लिए गाँधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने इसे हासिल करने के लिए संघर्ष किया, यानी सबसे निचले तबके के और खोए हुए लोग, जिनके बिना हमारी जीती हुई राजनीतिक स्वतंत्रता एक खोखली मृगतृष्णा ही रहेगी।” गाँधीजी ने एक बार उनके बारे में कहा था कि उनकी महत्वाकांक्षा बापा के निस्वार्थ सेवा के रिकॉर्ड की बराबरी करना है। उन्हें सही मायने में ‘बापा’ कहा जाता था- बेसहारा लोगों का पिता।
20 जनवरी 1951 को अपनी मृत्यु तक, ठक्कर बापा समाज के उपेक्षित वर्गों की समस्याओं के समाधान में लगे रहे। ठक्कर बापा का जीवन गाँधीवादी जीवन शैली पर आधारित अत्यंत सरल था। उनका दृढ़ विश्वास था कि अस्पृश्यता का उन्मूलन होना चाहिए और भारत के विभिन्न भागों में रहने वाले वनवासियों को हमारे सभ्य समाज के लाभों का आनंद मिलना चाहिए। उनके लिए मानवता की सेवा ही ईश्वर की सेवा थी। वे प्राथमिक सार्वभौमिक शिक्षा के महत्व से पूरी तरह वाकिफ़ थे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार की अकाल नीति, आदिवासी जनजातियों के कल्याण के प्रति उसकी उपेक्षा और राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के उसके क्रूर प्रयासों की आलोचना की। श्रमिक समस्याओं पर उनके विचार विशुद्ध रूप से मानवीय आधार पर थे। उनका मानना था कि खादी उत्पादन और कुटीर उद्योग, व्यापक रूप से, गाँवों के गरीब लोगों के लिए वरदान साबित हो सकते हैं। ठक्कर बापा के संघर्ष भरे जीवन की कहानी: सेवा और मानवता की एक मिसाल है।
भारत ने एक लंबे संघर्ष के बाद स्वाधीनता जरूर हासिल कर ली, पर बात अगर जीवन और समाज की करें तो धर्म से लेकर संस्कृति तक तमाम क्षेत्रों में शील और आदर्श की ऊंचाई हमने देश में औपनिवेशिक सत्ता के अंत से पहले ही प्राप्त कर ली थी। ठक्कर बाप्पा ऐसा ही एक बड़ा नाम है, जिसने अपने जीवन को सेवा का पर्याय बनाकर भारतीय समाज के सामने एक प्रेरक और अनुकरणीय आादर्श रखा। उनकी सेवा-भावना का स्मरण करते हुए डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, “जब-जब निस्वार्थ सेवकों की याद आयेगी, ठक्कर बापा की मूर्ति आँखों के सामने आकर खड़ी हो जायेगी।”
ठक्कर बापा की मृत्यु 20 जनवरी 1951 को हों गई; लेकिन उनकी विरासत आज भी अमर है। उनका जीवन सेवा, समानता और न्याय के आदर्शों का प्रतीक है। वे समाज के उत्थान और वंचितों के जीवन में बदलाव लाने के इच्छुक सभी लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। भारत सरकार ने 1969 में उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया। मुंबई में एक प्रसिद्ध बस्ती, ठक्कर बापा कॉलोनी, का नाम उनके नाम पर रखा गया है। मध्य प्रदेश राज्य सरकार ने गरीब, पीड़ित और अत्यंत पिछड़े आदिवासी समुदाय के लिए उनके समर्पित कार्यों के लिए उनके सम्मान में एक पुरस्कार की स्थापना की है। महाराष्ट्र सरकार ने आदिवासी गाँवों और बस्तियों के सुधार के लिए वर्ष 2007 में ठक्कर बापा आदिवासी बस्ती सुधारना नामक एक योजना शुरू की है। गरीब बेसहारा, वंचित वर्ग और आदिवासियों के लिए जीवन समर्पित करने वाले महापुरुष ठक्कर बापा को उनकी जयंती पर आदर्श समाज समिति इंडिया परिवार नमन करता है।
लेखक – धर्मपाल गाँधी, अध्यक्ष, आदर्श समाज समिति इंडिया
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