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दुनिया से जुड़ने के चक्कर में अपनों से ही दूर क्यों होने लगा इंसान?


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दुनिया से जुड़ने के चक्कर में अपनों से ही दूर क्यों होने लगा इंसान?

Bharat Ek Soch: बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक की सामूहिक चेतना को प्रभावित करने में इंटरनेट और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।

Bharat Ek Soch: आज की तारीख में गांव से शहर तक ऐसा परिवार खोजना मुश्किल है, जिनके पास स्मार्ट फोन न हो…ऐसा युवा खोजना मुश्किल है… जो Facebook, Whatsapp, Twitter, Instagram जैसे प्लेटफॉर्म पर एक्टिव न हो। ये लोगों को पूरी दुनिया से Virtually जोड़ने का माध्यम हैं। आज की तारीख में बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक की सामूहिक चेतना को प्रभावित करने में इंटरनेट और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स बड़ी भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन इस माध्यम ने लोगों के सामने एक नए तरह का संकट पैदा कर दिया है।

पूरी दुनिया से जुड़ने के चक्कर में लोग अपनों से कटने लगे

ये लोगों तो वर्जुअली पूरी दुनिया से जोड़ रहा है, लेकिन पूरी दुनिया से जुड़ने के चक्कर में लोग अपनों से कटने लगे हैं। सोशल मीडिया पर ओवर एक्टिव रहना एक बड़ी बीमारी की तरह बनता जा रहा है? ये एक खतरनकार नशे का रूप लेता जा रहा है, जिसकी चपेट में बच्चे, नौजवान और बुजुर्ग सभी अपने तरीके से आ रहे हैं। ऐसे में आज एक ऐसे मुद्दे पर आपसे जुड़ने का फैसला किया है, जो घर-घर की समस्या है। जो बच्चों का बचपन छीन रहा है…उनकी सेहत पर असर डाल रहा है…जो उनकी पढ़ाई को प्रभावित कर रहा है। युवाओं की कार्यक्षमता को भी प्रभावित कर रहा है। जाने-अनजाने उनका समय बर्बाद कर रहा है। ये लोकतंत्र में वोटिंग पैटर्न को भी प्रभावित कर रहा है। सोशल मीडिया और इंटरनेट से जुड़े सभी पहलुओं को समझने की कोशिश करेंगे।

कुछ दिनों पहले की एक घटना आंखों देखी है- एक जगह चार परिवार मिले। उनमें चार बच्चे पांच से सात वर्ष के बीच के थे। चारों एक कमरे में घुसे, दरवाजा बंद किया और सभी के हाथों में स्मार्टफोन थे…करीब दो घंटे के बीच किसी भी बच्चे ने आपस में बात नहीं की। अपने-अपने मोबाइल सेट के साथ व्यस्त रहे। वो मासूम बच्चे अपनी-अपनी पसंद के मुताबिक पूरी दुनिया से जुड़े रहे..लेकिन, हकीकत में उस समाज और परिवेश से कटे रहे, जिसमें रहने की आदत उन्हें सीखनी चाहिए थी। सिर्फ भारत ही नहीं पूरी दुनिया में सोशल मीडिया के अत्यधिक इस्तेमाल से होने वाले खतरों पर नए सिरे से मंथन होने लगा है।

सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा असर बच्चों की नींद पर

अमेरिका के स्कूली बच्चे भी सोशल मीडिया के नशे में चूर हैं। इंटरनेट और सोशल मीडिया का नशा शराब के नशे से भी खतरनाक है। इसकी लत में आने वाले शख्स रोजाना अपना घंटों का समय स्मार्ट फोन में बिता रहे है। कभी दूसरों की प्रोफाइल देखने में…कभी मनोरंजन के लिए Reels और Shots में…कभी ज्ञान बढ़ाने के नाम पर Youtube के वीडियो लोक में खोए रहते हैं। कुछ रिसर्च के मुताबिक, सोशल मीडिया का सबसे ज्यादा असर बच्चों की नींद पर पड़ता है। जिससे उनका Confidence हिल रहा है… खाने-पीने के तौर-तरीकों पर भी असर पड़ रहा है। मतलब, बच्चों की आउटडोर एक्टिविटी कम होने और स्क्रीन में घुसे रहने की वजह से बच्चों का मेंटल हेल्थ बहुत हद तक प्रभावित हो रहा है। ये एक ग्लोबल समस्या बनती जा रही है।

अब तक आपने नशा मुक्ति केंद्र के बारे में सुना होगा…लेकिन, वो दिन भी दूर नहीं जब माता-पिता को अपने बच्चों की सोशल मीडिया की लत छुड़ाने के लिए किसी Rehabilitation Center ले जाना पड़ सकता है। देश के छोटे-बड़े शहरों में Drug rehabilitation center की तरह Social Media or Mobile Rehabilitation Center खुलने लगेंगे। जब भी कोई तकनीक आती है…तो उसके फायदे भी होते हैं और नुकसान भी। स्मार्ट फोन से अगर जिंदगी आसान हुई है… दुनिया की हर खबर आपकी अंगुलियों के इशारे पर मौजूद है…तो दूसरा सच ये भी है कि ये रोजाना आपको दुनिया से कनेक्ट करने के नाम पर अपनों के लिए समय कम देने पर मजबूर कर रही है। घर-परिवार में संवाद की कड़ियां कमजोर हो रही है…वर्चुअल कनेक्शन जोड़ने के चक्कर में रियल सोशल कनेक्शन का नेटवर्क दिनों-दिन कमजोर होता जा रहा है।

सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं 61 फीसदी से अधिक लोग 

एक रिसर्च के मुताबिक अभी देश की आबादी में 61 फीसदी से अधिक लोग सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रहे हैं। ये आंकड़ा 2025 में बढ़कर 67 फीसदी के निशान को पार करने का अनुमान है। लेकिन, आपको जानकर हैरानी होगी कि 2015 में सिर्फ 19 फीसदी लोग ही भारत में सोशल मीडिया पर एक्टिव थे….लेकिन, आठ वर्षों में ही ये तादाद तीन गुनी बढ़ गई। इंटरनेट और सोशल मीडिया की ताकत का इस्तेमाल आम आदमी अपने तरीके से कर रहा है। बिजनेस कंपनियां अपने तरीके से और राजनीतिक दल अपने तरीके से। पॉलिटिकल नैरेटिव अपने हिसाब से आगे बढ़ाने के लिए राजनीतिक दल और नेता सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं…ऐसे में फेक न्यूज और सूचनाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की प्रवृति तूफानी रफ्तार से आगे बढ़ रही है। जो लोगों की सामूहिक चेतना को प्रभावित कर रहे हैं। सच को झूठ और झूठ को सच बताने का खेल भी सोशल मीडिया के जरिए धड़ल्ले चल रहा है। इसे कुछ समाजशास्त्री लोकतंत्र के लिए बेहतर…तो कुछ हानिकारक मान रहे हैं।

आज की तारीख में सोशल मीडिया आम आदमी के हाथों में एक ताकतवर हथियार की तरह है, जिसका इस्तेमाल वो अपनी समझ के मुताबिक करता है। इसे कंट्रोल करना असंभव जैसा है … इसके जितने फायदे हैं, जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल पर उतना ही नुकसान भी। भले ही कोरोना काल में बच्चों के लिए पढ़ाई-लिखाई का जरिया स्मार्ट फोन, टैबलेट, लैपटॉप और डेस्कटॉप बन गए। उनके सामने दुनिया की इतनी जानकारियां आ गईं, जिनमें से बच्चों लिए ये तय कर पाना मुश्किल था कि उनके लिए क्या जरूरी है और क्या फालतू?

बच्चों का सम्मोहन सोशल मीडिया से खत्म नहीं हुआ

ऑनलाइन से ऑफलाइन की दुनिया में वापसी के बाद भी बच्चों का सम्मोहन सोशल मीडिया से खत्म नहीं हुआ…जो उन्हें खेल के मैदान, हकीकत के दोस्त, समाज की हकीकत और अड़ोस-पड़ोस के माहौल दूर कर रहा है। ऐसे में एक स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था के लिए सबको गंभीरता से सोचना होगा कि सोशल मीडिया का कितना और कब इस्तेमाल करना है…जिससे हमारी प्रोडक्टिविटी प्रभावित न हो…गलत सूचनाओं के भंवर जाल में फंसकर सच्चाई से दूर न हों।

सोशल मीडिया पर रिश्ता जोड़ने के चक्कर में इतना समय न बर्बाद कर दें…जिससे करीब के रिश्तों में ही दूरी बन जाएं। मतलब, सोशल मीडिया पर समय खर्च करते समय संतुलन बहुत जरूरी है। सोशल मीडिया के दखल को जिंदगी में कम करने के लिए डिजिटल उपवास का चलन भी धीरे-धीरे शुरू हो रहा है- ठीक उसी तरह जैसे दफ्तरों में हफ्ते में एक दिन या दो दिन का ऑफ मिलता है। स्कूलों में शनिवार और रविवार को क्लास नहीं लगती है।

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