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आरक्षण को लेकर कोटा में कोटा को लेकर ऐतिहासिक फैसला


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आरक्षण को लेकर कोटा में कोटा को लेकर ऐतिहासिक फैसला

आरक्षण को लेकर कोटा में कोटा को लेकर ऐतिहासिक फैसला

राजेन्द्र शर्मा झेरलीवाला, वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक चिंतक

सुप्रीम कोर्ट ने 6:1 के बहुमत से फैसला दिया और साफ किया कि राज्यों को कोटा के भीतर कोटा देने के लिए एससी-एसटी सब कैटेगरी बनाने का अधिकार है। माननीय सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से यह तय हो गया कि राज्य सरकारें अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति श्रेणियों के लिए सब कैटेगरी बना सकती है। अभी एससी-एसटी कोटे में चंद लोग ही फायदा हासिल कर रहे हैं । यह राज्यों की जिम्मेदारी है कि वह पिछड़ी समुदायों को भी तरहीज दे। आरक्षण व्यवस्था को लेकर क्रीमी लेयर की पहचान करनी चाहिए। आरक्षण का फायदा ले चुके लोगों को इससे बाहर कर वंचितों को मौका दिया जाना चाहिए। यदि किसी परिवार ने आरक्षण का लाभ उठाकर उच्च वर्ग प्राप्त कर लिया हो तो यह लाभ तार्किक रूप से दूसरी पीढ़ी के लिए नहीं बनता है। यह देखा गया है कि एक ही परिवार के पीढ़ी दर पीढ़ी इस व्यवस्था का लाभ लेकर आईएएस, आईपीएस व उच्च अधिकारी बने हैं और आगे भी इसका लाभ ले रहे है। इस तरह के क्रीम लेयर परिवारों की पहचान कर उनको इस लाभ से वंचित कर देना चाहिए ।

माननीय सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से निश्चित रूप से आरक्षण प्रणाली को लेकर जो खामियां हैं वह उजागर हुई है। देखा जाए तो जाति पर आधारित आरक्षण व्यवस्था सामाजिक ताने-बाने को नष्ट करने में सहायक है। क्या गरीबी जाति देखकर आती है। वस जातियां जिनको आरक्षण नहीं मिल रहा उनमें बहुत से परिवार है जो गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने को मजबूर हैं लेकिन ईश्वर ने उनको उस जाति में जन्म दे दिया जो आरक्षण के दायरे में नहीं आती। आजादी के सतर साल बाद भी यदि आरक्षण व्यवस्था लागू है और सरकारें यह सोचती है कि आरक्षण मिलने वाली जातिया अब भी दलित है तो यह उनकी भूल है। एक समय जातिगत आरक्षण उन जातियों के लिए संजीवनी था जो दलित, पिछड़े व वंचित रहे थे। आज के राजनीतिक परिदृश्य में जातिगत आरक्षण राजनीतिक दलों के लिए संजीवनी है क्योंकि इस वोट बैंक के सहारे सता तक आसानी से पहुंचा जा सकता है।

वैसे तो आरक्षण ही देना है तो स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक मिलना चाहिए और इस आरक्षण का आधार आर्थिक पिछड़ापन होना चाहिए न कि जाति पर आधारित। आरक्षण रुपी इस बीमारी के चलते वह स्थिति बहुत ही हास्यास्पद लगने लग जाती है जब 30 प्रतिशत वाला सरकारी मास्टर लग जाता है और 95 प्रतिशत वाला मुंह ताकता रह जाता है । इस व्यवस्था से हीन भावना के शिकार बच्चों ने आत्महत्या तक की है। जातिगत आरक्षण के कारण देश से प्रतिमाओं का पलायन हो रहा है।

जातिगत आरक्षण को लेकर एक राष्ट्रीय बहस के साथ आम सहमति बनाने की दिशा में प्रयास होने चाहिए कि क्या इस व्यवस्था को खत्म कर दिया जाए ? यदि नहीं तो फिर आरक्षण का आधार आर्थिक पिछड़ापन हो जिसमें सभी जातियों को समान अवसर मिले।

राजेन्द्र शर्मा झेरलीवाला, वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक चिंतक

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