रामदेवरा (जैसलमेर)
रोके से ना रुके हम, मर्जी सा चले हम बादल सा गरजे हम, सावन सा बरसे हम सूरज सा चमके हम – स्कूल चलें हम
स्कूल चलें हम? लेकिन क्यों….
40 डिग्री से ज्यादा गर्मी में खुले आसमान के बीच लू के थपेड़े खाने के लिए? गोबर की बदबू झेलने के लिए या कीड़ों की चपेट में आने के लिए?
ये सवाल है उन बच्चों के जाे स्कूल के नाम पर जानवरों के तबेले में पढ़ रहे हैं। तपती रेत में न बैठना पड़े, इसके लिए खुद अपने घरों से बैठने के लिए बोरियां लाते हैं। टीचर के बैठने के लिए चारपाई लाने की जिम्मेदारी भी इन्हीं बच्चों की है। अंधड़ आ जाए तो झोपड़ीनुमा स्कूल उड़ जाता है। ढूंढे से भी नहीं मिलता।
ये शर्मनाक सच है जैसलमेर के सरकारी स्कूलों का। हमारी मीडिया की टीम स्कूलों की जमीनी हकीकत जानने पोकरण इलाके में पहुंची।
एक के बाद एक ऐसे-ऐसे स्कूल मिले, जहां पढ़ना तो दूर दो मिनट खड़ा रहना भी मुश्किल था। न तो स्कूल की नींव थी, ना दीवारें। इस हाल में तो ब्लैक बोर्ड की उम्मीद भर बेमानी है। जरा सोचिए… इस व्यवस्था के भरोसे सरकार बेहतर भविष्य गढ़ने का दावा कर रही है।
पढ़िए पूरी रिपोर्ट…
दिन में बच्चे पढ़ते हैं, रात को पशु बांधे जाते हैं
पोकरण से करीब 60 किलोमीटर दूर मेंगेरी की ढाणी। हमें गांव का स्कूल देखना था। सो गांव में मिले एक व्यक्ति से पूछा – स्कूल कहां है? उसने सामने इशारा किया और कहा – वह बबूल का पेड़ दिख रहा है। बस वही स्कूल है। हम वहां पहुंचे। पेड़ के नीचे ही एक चारपाई पर बैठा शिक्षक सामने बैठे 15-16 बच्चों को पढ़ा रहा था। ये था गांव का सरकारी प्राथमिक स्कूल। रमेश गुर्जर यहां के एकमात्र शिक्षक हैं। दो साल पहले उनका यहां तबादला हुआ तो इस गांव में पहुंचे। पूरा गांव घूमने के बाद भी उन्हें स्कूल नहीं मिला तो ग्रामीणों से पूछा कि स्कूल कहां है? तब पता चला कि स्कूल की कोई बिल्डिंग नहीं है। इसलिए इस पेड़ के नीचे ही स्कूल शुरू कर दिया।
जब मैं पहली बार यहां आया तो मैं भी चौक गया। गांव वालों से चर्चा की, उसके बाद पेड़ के नीचे ही स्कूल शुरू कर दिया ~~रमेश गुर्जर, टीचर सत्याया प्राथमिक स्कूल
रमेश गुर्जर ने बताया कि दो साल हो गए। मैं यहां से करीब 4-5 किलोमीटर दूर सेवड़ा गांव में एक किराए के कमरे में रहता हूं। स्कूल के नाम पर हमारे पास यह एकमात्र पेड़ है। सवेरे यहां स्कूल चलता है। रात में आसपास के लोग यहां अपने पशु बांध देते हैं। सवेरे आते हैं तो चारों ओर गोबर बिखरा मिलता है। स्कूल में ब्लैक बोर्ड, दरी, टेबल-कुर्सी, पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। बैठने के लिए बच्चे अपने लिए प्लास्टिक के कट्टे और मेरे लिए चारपाई रोजाना घर से लाते हैं। पास ही एक घर में पोषाहार रखा हुआ है। एक महिला पोषाहार बना देती है। प्यास लगने पर बच्चे आसपास के घरों में जाकर पानी का लोटा भर लाते हैं। रमेश गुर्जर बताते हैं कि स्कूल में अभी 22 बच्चे पढ़ रहे हैं। ये बच्चे आग सी तपती रेत पर बैठते हैं। कई बार कीड़े उन पर चढ़ जाते हैं। बारिश के दिनों में तो स्कूल बंद ही रहता है।
हमारी बातें सुनकर बच्चों को लगा कि हम शायद उनके स्कूल की सूरत सुधारने आए हैं। सो वे भी कई शिकायतें करने लगे। छात्र नजीर और रईस ने बताया कि हम नीचे बैठते हैं तो चीचड़ (गाय से चिपककर रहने वाला कीड़ा) हमारे शरीर से चिपक जाता है। धूल भरी हवाएं चलती हैं। यहां बैठना भी मुश्किल हो जाता है।
सरपंच देरावरसिंह का कहना है कि गांव के बच्चे पढ़ सकें, इसलिए हमने यहां स्कूल मंजूर करवाया। अफसोस अब तक इसकी बिल्डिंग नहीं बनी है। गांव से लौटते समय हमें फोटे खां मिले। वे बोले- साब, ये स्कूल नहीं है। बच्चों के भविष्य के साथ मजाक है। हम तो कई बार सरपंच से लेकर अधिकारियों को बता चुके हैं, लेकिन कोई नहीं सुनता।
एक झोपड़ी में पढ़ते हैं 52 बच्चे, वह भी गांव वालों ने बनाकर दी
मेंगेरी की ढाणी से निकलकर हम करीब 85 किलोमीटर दूर नाचना की इब्राहिम खान की ढाणी पहुंचे। इस गांव में भी स्कूल है। पता जानने के लिए हमने रास्ते से गुजर रहे ट्रैक्टर वाले से पूछा। उसने एक रेत के टीले की ओर इशारा कर बताया कि बिल्कुल उसके पीछे ही है। रेतीले, कांटों भरे रास्ते से होते हुए हम वहां पहुंचे। सामने एक छोटी सी झोपड़ी थी। अंदर जाकर देखा तो पता चला कि इसी झोपड़ी में चलता है गांव का राजकीय प्राथमिक स्कूल। पांचवीं तक के इस स्कूल में दो शिक्षक हैं। मेशाराम और भवानी शंकर सुथार। स्कूल में 52 बच्चों का रजिस्ट्रेशन है, लेकिन आते केवल 20-22 ही हैं। हमने दोनों शिक्षकों से पूछा- आप यहां कैसे पढ़ा लेते हैं?
बिल्डिंग के लिए जमीन तो अलॉट हो चुकी है, पट्टा भी मिल चुका है, लेकिन बिल्डिंग नहीं बनी है। स्कूल के डॉक्यूमेंट बैग में ही रखने पड़ते हैं। ~~ मेशाराम, टीचर, प्राथमिक स्कूल, इब्राहिम खान की ढाणी
मेशाराम बोले – यह झोपड़ी भी गांव वालों ने बनाकर दी है। स्कूल के नाम पर जमीन तो है, लेकिन बिल्डिंग नहीं बनी है। ऐसे में इसी में पांचों क्लास के बच्चे पढ़ते हैं। वे हमें झोपड़ी दिखाते हुए कहते हैं देखिए- जगह-जगह से यह भी टूट चुकी है। अंदर धूप ना आए, इसलिए हमने यहां तिरपाल लगा दिया है। पूरा इलाका रेगिस्तानी है।
तेज धूलभरी हवाएं चलती हैं। कई बार तो सवेरे लौटते हैं तो रात को हवाओं के कारण झोपड़ी का आधा हिस्सा गायब मिलता है। दूसरे टीचर भवानी शंकर बीच में टोकते हुए बोले – पहले झोपड़ी पर स्कूल का बोर्ड भी लगा था, लेकिन एक बार आई तेज आंधी में वह उड़ गया।
दोनों शिक्षक बताते हैं कि हमारे पास कोई जगह नहीं है। पोषाहार चोरी ना हो जाए, इसलिए वह पास ही के एक घर में रखवाया है। स्कूल के सारे डॉक्युमेंट हम अपने साथ बैग में रखते हैं। बच्चों के बैठने के लिए यहां दरी तक नहीं है। वे अपने घर से ही बोरियां आदि लाते हैं। हमारे बैठने के लिए भी यहां कुछ नहीं था तो बच्चे घर से चारपाई लाते थे। हालाकि अब गांव वालों ने हमें दो कुर्सियां दी हैं।
हमने बच्चों से बात की। चौथी कक्षा में पढ़ने वाली जुबैदा और दोस्त अली पहले तो थोड़े से सहमे, फिर बोले- कई बार झोपड़ी में सांप आ जाता है। बारिश के मौसम में तो स्कूल की छुट्टी ही रहती है।
6 महीने पहले टीचर्स के बैठने के लिए कुर्सियां भी नहीं थीं, तब बच्चों के हाथ हम घर से चारपाई भेजते थे। जनवरी में ग्रामीणों ने टीचर्स के लिए कुर्सियां दी हैं। ~~ मिश्री खान, ग्रामीण
स्कूल के बाहर ही हमें मिश्री खान मिले। वे बोले- सरकार ने तो बस यहां स्कूल मंजूर कर दिया। बाकी कुछ नहीं। हम लोगों ने यहां झोपड़ी बना दी ताकि बच्चे पढ़ सकें। बाद में पंचायत ने इसी जमीन पर स्कूल का पट्टा दे दिया है। अब देखते हैं कि बिल्डिंग कब बनती है।
पहले बच्चों को पढ़ने के लिए 4 किलोमीटर दूर जाना पड़ता था, दूरी ज्यादा होने के कारण लड़कियों को नहीं भेजते थे। अब जैसा भी स्कूल है कम से कम हमारी लड़कियां पढ़ तो रही हैं। ~~इब्राहिम खान, ग्रामीण
न होने से तो झोपड़ी अच्छी
स्कूल से कुछ दूरी पर हमें इब्राहिम खान मिले। हमने उनसे पूछा- गांव का स्कूल झोपड़ी में चल रहा है। आप लोगों ने कभी शिकायत नहीं की। इब्राहिम खान ने जो कुछ बताया उससे इस गांव की मजबूरी साफ दिखती है। वे बोले – हमारी कई कोशिशों के बाद यहां स्कूल मंजूर हुआ है। उससे पहले बच्चे 4 किलोमीटर दूर पढ़ने जाते थे। इस दूरी के कारण हम वहां लड़कियों को नहीं भेजते थे। अब गांव में ही स्कूल है। भले वह झोपड़े (झोपड़ी) में चल रही हो। कम से कम बेटियां तो पढ़ पा रही हैं। उन्होंने बताया कि स्कूल में ब्लैक बोर्ड नहीं था तो मैंने बनवाकर दिया था। तेज आंधी आई तो वह भी टूट गया।
जमीन के बावजूद दस साल से झोपड़ी में चल रहा स्कूल
इब्राहिम खान की ढाणी से निकलकर हम करीब 12 किलोमीटर दूर 3-4 NM (शेखों का तला) गांव पहुंचे। हालात यहां भी वैसे ही नजर आए। सरकार ने दस साल पहले गांव में प्राथमिक स्कूल खोल दिया। जमीन भी आवंटित कर दी, लेकिन बिल्डिंग नहीं बनाई। नतीजा बच्चे टूटी-फूटी झोपड़ी में पढ़ने को मजबूर हैं। दीवारें गोबर मिट्टी से बनी हैं। कुल 52 बच्चे यहां पढ़ते हैं। इनके लिए एक शिक्षक लोकेश कुमार हैं। वे बताते हैं कि मेरी तो ड्यूटी है। इसलिए रोजाना आ जाता हूं। ये बच्चे बहुत परेशान होते हैं। स्कूल में ना तो पानी है और ना ही दूसरी सुविधाएं। इस रेगिस्तान में 10 बजे से तो लू चलने लगती है। गर्म हवा के थपेड़े इनसे सहन नहीं होते। इसलिए सब घर जाने की बात कहते हैं। लोकेश कुमार बताते हैं कि हमने बिल्डिंग के लिए कई बार अधिकारियों को अवगत करवा दिया। अब देखते हैं कि कब तक स्कूल को बिल्डिंग मिलती है।
बोर्ड गिरने से बच्चा हो गया था घायल
पोकरण लौटते समय हम गणेशपुरा गांव पहुंचे। गाड़ी में से ही हमारी नजर एक झोपड़ी पर पड़ी। इसी पर टंगा था राजकीय प्राथमिक स्कूल का बोर्ड। बाहर कुछ बच्चे खेल रहे थे। हम अंदर पहुंचे। यहां दो शिक्षिकाएं तैनात हैं। हमें शिक्षिका रूक्मो कुमारी मिलीं। उन्होंने बताया कि स्कूल में 60 बच्चों का एडमिशन है। इस एक झोपड़ी में ही हम इन बच्चों को पढ़ाते हैं। सुविधाओं के नाम पर यहां कुछ नहीं है। बारिश और लू के दिनों में हमें बहुत परेशानी होती है। बच्चों की छुट्टी तक करनी पड़ती है।
गांव के कैलाश मेघवाल बताते हैं- दो साल से झोपड़ी में ही स्कूल चल रहा है। तेज तूफान के कारण ये झोपड़ी कई बार टूट चुकी है। एक बार तो तेज हवा चलने से झोपड़ी में लगाया गया ब्लैक बोर्ड भी गिर गया था। इसकी चपेट में एक-दो बच्चे भी आए थे। उन्हें हल्की चोट लगी थी।
लोग चाहते हैं हालात बदलें, लेकिन सुनवाई नहीं
3-4 NM (शेखों का तला) के पास ही रास्ते में हमें दिलबर खान मिले। उनसे हमने आसपास के स्कूलों के बारे में पूछा। दिलबर खान ने बताया कि यहां किसी भी गांव में चले जाइए, आपको ऐसे ही स्कूल मिलेंगे। कोई झोपड़ी में तो कोई पेड़ के नीचे चल रहा है। उन्होंने हमें आमदपुरा गांव के एक स्कूल की फोटो दिखाई। उन्होंने बताया कि आमदपुर गांव के ही एक व्यक्ति ने उसे ये फोटो दिया है। उस स्कूल में 25 से ज्यादा बच्चों का एडमिशन है। दो टीचर मानाराम और पृथ्वीराज यहां तैनात हैं। इस स्कूल को बने करीब 6 साल हो गए। बिल्डिंग अभी तक नहीं बनी। गांव के लोग कई बार अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों को बता चुके, लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती।
कहां अटके स्कूल, जवाब- फाइलों में
स्कूलों के ऐसे हालात पर हमारे मीडिया कर्मी ने जैसलमेर जिला शिक्षा अधिकारी रामनिवास शर्मा से बात की। उनके पास स्कूलों की ऐसी दुर्दशा का तो कोई जवाब नहीं था। एक रटारटाया जवाब जरूर उन्होंने दिया। वे बोले- कुछ स्कूलों में जमीन का आवंटन हो चुका है, कुछ के लिए हमने फाइल भेजी है। जैसे ही प्रोसेस होगी, बिल्डिंग बनवाने की प्रक्रिया भी शुरू हो जाएगी।