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राजस्थान के इतिहास के स्रोत : सिक्के/मुद्रायें (Coins)


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राजस्थान के इतिहास के स्रोत : सिक्के/मुद्रायें (Coins)

राजस्थान के इतिहास के स्रोत : सिक्के/मुद्रायें (Coins)

संकलनकर्ता किशोर सिंह चौहान उदयपुर विशेषज्ञ इतिहास और कला संस्कृति

राजस्थान के इतिहास के स्रोत : अभिलेखों की भाँति सिक्के भी राजस्थान के इतिहास को जानने में काफी सहायक सिद्ध होते हैं। सिक्कों के अध्ययन को ‘मुहातात्र (न्यूमिस्मेटिक्स-Numismatics) कहते है। राजस्थान की विभिन्न रियासतों के शासकों ने सोने, चाँदी, ताँबे व सीसा धातु के सिक्के जारी किये थे। सिक्के शासकों की संप्रभुता के परिचायक रहे थे। अत अधिकांश शासकों ने अपने शासनकाल में अपने नाम के सि जारी किये। सिक्कों पर अंकित राजा का नाम, उपाधि तिथि, राजचिहन इत्यादि द्वारा हम शासक का नाम, उपलब्धियों, उस समय की भाषण व लिपि, काल तथा क्षेत्र का विस्तार, उस काल की समृद्धता एवं असमृद्धता को ज्ञात कर सकते हैं। सिक्के राजनीतिक इतिहास एवं राज्य की सीमा को निर्धारित करने में काफी सहायक सिद्ध होते हैं। सिक्कों की बनावट और बलाई से ज्ञात होता है कि उस काल में कली काँ तक विकसित थी। सिक्कों के माध्यम से शासकों का वशक्रम निर्धारित किया जाता है।

सिक्कों से तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एंव राजनीतिक स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। किसी भी शासक के अधिक सिक्के उसके शासन की स्थिरता का बोध कराते हैं। राजस्थान के विभिन्न भागों में शिवि, मालव योद्धेय आदि जनपदों के सिक्के प्राप्त हुए है जो इसका प्रमाण है कि यह जनपद इस क्षेत्र में अच्छी प्रकार से विकसित थे। शिवि जनपदीय सिक्के मध्यमिका (चितौड) तथा गणराज्य के सिक्के सांभर (जयपुर) व नोह (भरतपुर) से प्राप्त हुए हैं।

आरम्भिक मध्यकालीन सिक्कों में गधिया शैली’ के सिक्के सर्वाधिक प्राप्त हुए है। इन सिक्कों पर अंकित मूर्ति का मुँह गधे जैसे दिखाई देता है। अतः इनकों गधिया कहा जाता है। गुर्जर प्रतिहारों, मेवाड व मारवाड में गधिया मुद्राओं का प्रचलन था। गफीया सिक्के 10-11 वीं शताब्दी में प्रचलित थे।

प्रमुख सिक्के :-
पंचमार्क (आहत) सिक्कें

पुरातात्विक दृष्टि से भारत के आरम्भिक / प्राचीनतक सिक्कों को ‘पंचमार्क /आहत / चिन्हित सिक्के कहा जाता है, जो लेख रहित है तथा ई. पू पाँचवी सदी (500 ई. पू) के है। पंचमार्क सिक्के अधिकतर चाँदी तथा अंशत ताँबे के बने होते थे। पंचमार्क सिक्को पर उत्कीर्ण पेड़, मछली, हाथी, अर्द्धचन्द्र, वृषभ (सोंड) इत्यादि चिहन पंच करके ठप्पा लगाकर बनाये जाते थे। उपा मारकर बनाने जाने के कारण इन्हें आहत सिक्के भी कहते हैं। सर्वप्रथम 1835 ई. में जेम्स प्रिंसेप ने निर्माण शैली के आधार पर इन सिक्कों को पंचमार्क / आहत नाम दिया था। पचमार्क सिक्कों का विस्तृत अध्ययन व इनकी व्याख्या ई. जे. रैप्सन ने की है। प्रारम्भ से लेकर

मौर्यकाल तक सर्वाधिक आहत सिक्के पूर्वी उत्तरप्रदेश व मगध (बिहार) से मिले हैं। सर्वाधिक आहत सिक्के मौर्यकालीन है। राजस्थान में पंचमार्क सिक्के बैराठ (जयपुर), रेव (टोंक), गुरारा (सीकर), नगरी (चित्तौडगढ़), नोह (भरतपुर), सौमर, ईस्माइलपुर जसन्दपुरा (जयपुर) आदि स्थानों से प्राप्त हुए है।

नोह (भरतपुर) एवं रैक (टोंक) से प्राप्त पंचमार्क सिक्के ताँबे के बने हुए है। मुरारा (सीकर) से लगभग 2744 पंचमार्क सिक्के मिले हैं। आहड़ से प्राप्त सिक्कै आहड़ (उदयपुर) से उत्खनन में 6 ताँबे के सिक्के (जिनमें एक चौकोर तथा पाँच गोल है) तथा इण्डो-ग्रीक मुद्राएँ प्राप्त हुई, जिनका समय है.पू तीसरी शताब्दी से ई पु द्वितीय शताब्दी आँका जाता है। इण्डो-ग्रीक मुद्रा पर एक तरफ हाथ में तीर लिए अपोलो तथा दूसरी और महाराज उतर्स उत्कीर्ण हैं। आहड़ से तत्खनन में 3 मुहरे (सीले) भी प्राप्त हुई है जिन पर विरहम विसपालितस अंकित है।

रैढ से प्राप्त सिक्के निवाई तहसील (टोक) में बील नदी के किनारे स्थित रेक नामक स्थान से लगभग 3015 चौदी के पगमार्क सिक्के प्राप्त हुए हैं जो एक ही स्थान से मिले सिक्कों की सबसे बड़ी संख्या है। इन सिक्कों को घरण या पण कहा जाता था। इन सिक्कों का वजन 57 घेन/32 रत्ती/ ग्राम है। ये सिक्के मौर्यकाल के हैं। रैंक से ताँबे के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं जिन्हें गुणमुदाएँ कहा जाता है जो मालव, सेनापति, मित्र, इण्डो-सेसेनियन आदि वर्ग के हैं। रैंक से प्राप्त 6 सेनापत्ति मुद्राएँ जिन पर नन्दी के आकार का चित्र है जो 300 इंपू से 200 ई.पू की है। इन मुद्राओं पर वच्छधोष का अंकन है। वच्छ्घोष के तास सिक्के रैंक (टोंक) से प्राप्त हुए हैं। रेव व नोह टीलों के पुरातात्विक उत्खनन से ताम्र सिक्कों की श्रृंखला प्राप्त हुई है। रैक से प्राप्त सिक्कों पर तीर, मछली, सूर्य, धष्ण्टा, पेड़ पशु के चित्र अंकित है। बैंक से एशिया का अब तक का सबसे बड़ा सिक्कों दफीना (भण्डार) मिला है। यहाँ से मालव जनपद (गणराज्य) के सिक्के सर्वाधिक मिले हैं। रैंक से चाँदी के पंचमार्क सिक्के देश में एक ही स्थान से सर्वाधिक मात्रा (3075) में प्राप्त हुए है। ये सिक्कं भारत के प्राचीनतम सिक्के है।

मालवगण के सिक्के
रैढ व पूर्वी राजस्थान से हजारों की संख्या से प्राप्त ये सिक्के 200 ई.पू. से 200 ई तक के हैं। इन सिक्कों पर मालवाना जय अंकित है।

राजन्य सिक्के
ई.पू. प्रथम शाताब्दी (100 ईपू) के आस-पास के ये सिक्के पूर्वी राजस्थान से प्राप्त हुए हैं। इन पर राजन्य जनपस्य अंकित है।

यौधेय सिक्के
उत्तर पश्चिमी राजस्थान (गगानगर व हनुमानगढ़) से प्राप्त इन सिक्कों पर ब्राहमी लिपि में यौधेयाना बहुधाना अकित है।

यौधेय गणराज्य के सिक्के साभर (जयपुर) व नोह (भरतपुर) से भी प्राप्त हुए है।

नगर मुद्राएँ
1871 ई में कार्लायल को नगर अथवा कार्कोट नगर (उणीयारा तहसील, टोक) से लगभग 6000 ताँबे के सिक्के प्राप्त हुए है। इन पर ब्राह्‌मी लिपि में लगभग 40 मालव सरदारों के नाम अंकित हैं। इन सिक्कों से वहीं मालवों के आधिपत्य तथा उनकी समृद्धि का पता चलता है।

रंगमहल से प्राप्त सिक्के रंगमहल (हनुमानगढ) से लगभग 105 सिक्के प्राप्त हुए है जिनमे से कुछ कुषाणकालीन सिक्के है जिन्हें मुरंडा कहा गया। यही से कुषाण शासक कनिष्क का सिक्का भी मिला हैं।

बैराठ से प्राप्त सिक्के
बैराठ (कोटपूतली बहरोड) से 36 मुदाएँ प्राप्त हुई है. जिनमें 8 पंचमार्क है तथा 28 मुद्राएँ इण्डो-ग्रीक शासको (हिन्द-यूनानी राजाओं) की है। इन मुदाओं से यह प्रमाणित होता है कि बैराठ यूनानी शासकों के अधिकार में था. क्योंकि 28 मुद्राओं में से 16 मुद्राएँ यूनानी शासक मिनेण्डर की है।

सांभर से प्राप्त सिक्के सॉभर (जयपुर) से 200 मुद्राएँ प्राप्त हुई है जिनमें से 6 मुद्राएँ चाँदी की पंचमार्क है। छ मुदाएँ ताम्र की है। यहाँ से इण्डो-सेसेनियन शासकों की मुद्राएँ भी प्राप्त हुई है। सांभर से इण्डो-ग्रीक शासक ‘एन्टियकोजनिकेफोरस’ की एक चाँदी की मुद्रा प्राप्त हुई है। यहाँ से प्राप्त यौधेय सिक्कों पर ब्राहमी लिपि में बबुधना एवं गज शब्द अंकित है।

नोट- इण्डों सेसेनियन सिक्कों का एक बहुत बड़ा दफीना (भण्डार) कासीन्द्रा गाँव (सिरोही) से प्राप्त हुआ है।

गुप्तकालीन सिक्के गुप्तकाल में सोने के सिक्कों को दीनार तथा चाँदी के सिक्कों को ‘रुपक’ कहा जाता था। राजस्थान में बयाना (भरतपुर), बुन्दावली का टीबा एवं मोरोली (जयपुर), अहेड़ा (अजमेर), नलियासर (सॉभर) रेड. सायला / सुखपुरा व देवली (टोंक) से गुप्तकालीन स्वर्ण मुदाएँ प्राप्त हुई है। राजस्थान से गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राओं की सबसे बड़ी निधि बयाना (भरतपुर) के पास ‘हुल्लनपुरा

गाँव से खोजी गई। सायला गाँव (टोंक) से 13 स्वर्ण मुद्राएँ समुद्रगुप्त (335-375) की प्राप्त हुई है। ये स्वर्ण सिक्के ध्वज शैली के है जिनके अग्रभाग पर समुद्रगुप्त हाथ में ध्वज लिए खड़ा है। रेड (टोंक) से 6 गुप्तकालीन मुद्राएँ प्राप्त हुई है।

राजस्थान से गुप्तकालीन सर्वाधिक सिक्के बयाना (भरतपुर) के पास ‘नगलाछेल’ ग्राम से प्राप्त हुए हैं (1948 ई में) जिनकी संख्या लगभग 1800 है। इन सिक्कों में सर्वाधिक सिक्के चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के है। विक्रमादित्य के सिक्के छत्रशैली के है (एक सेवक राजा के सिर पर छत्र लिए खड़ा है)। अहेडा (सरवाड अजमेर), सुखपुरा (टोक) से गुप्तकालीन सिक्कों का दफीना (भण्डार) मिला है जिसमें गुप्त शासक समुद्रगुप्त (335-375 ई.) एवं चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (375-415 ई) कालीन 48 सोने के सिक्के प्राप्त हुए है।

गुर्जर प्रतिहारों के सिक्के राजस्थान के मारवाड क्षेत्र में इन सिक्कों की प्राप्ति हुई जिन पर यज्ञदेवी एवं रक्षक चि‌ह्नों की प्रधानता है। ये सिक्के सेसेनियन शैली से प्रभावित है। प्रतिहारों के आदिवराह, वराहनाम वाले, दम और देवी की प्रतिमा वाले. वृषभ मत्स्य और अश्वारोही अंकन वाले अनेक सिक्के मिले हैं। प्रतिहार राजा मिहिरभोज के सिक्कों पर वराह अवतार का अकन मिलता है। मिहिरभोज ने (836-885 ई.) आदिवराह व प्रभास जैसी उपाधियों धारण की। मिहिरभोज ने आदिवराह दम्म नामक सिक्का बलाया। आदिवराह शैली के इन सिक्को पर नागरी लिपि में ‘श्री मदादिवराह अंकित है।

चौहान शासकों के सिक्के चौहानों ने विविध प्रकार के सिक्के चलाए जिनमें इम्म, विशोषक रुपक. दीनार आदि प्रसिद्ध है। इन सिक्कों पर वृषभ, अश्वारोही के चितताका नाम अंकित है। अधिकतर चींटी एवं ताँबे से निर्मित ये सिक्के अजमेर, सांभर, जालौर नाडोल से प्राप्त हुए है। वर्तमान में ये सिक्कं अजमेर म्यूजियम एव कोलकत्ता म्यूजियम में सुरक्षित है। अजयदेव/अजयराज की रानी सोमलेखा द्वारा चीटी के सिक्कं तथा सोमेश्वर चौहान के द्वारा दुषम शैली के सिक्के चलाए गए। अजयराज चौहान के सिक्कों के एक तरफ लक्ष्मी का चिहुन तथा दूसरी तरफ उसका नाम अंकित हैं।

एडवर्ड धामस ने अपनी पुस्तक क्रोनिकल्स ऑफ दी पठान किंग्स ऑफ दिल्ली में 1192 है के पृथ्वीराज चौहान-तृतीय से प्राप्त शिकों का बित्र दिया है। इस सिक्के की एक तरफ मुहम्मद बिन साम तथा दूसरी तरफ पृथ्वीराज चौहान अंकित है। इस सिक्के के आधार पर कई इतिहासकार मानते हैं कि तराइन के द्वितीय युद्ध (1192 ई) के पश्चात् पृथ्वीराज चौहान-तृतीय को गजनी नहीं ले जाया गया था बल्कि अपने अधीन करके अजमेर का शासक रहने दिया था। इस सिक्के की प्राप्ति के बाद चंदबरदाई का अपने ग्रन्थ पृथ्वीराज रासों में यह लिखना कि तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद मुहम्मद गौरी पृथ्वीराज चौहान-तृतीय को गजनी ले गया था, असत्य सिद्ध हो चुका है।

चौहानों के पतनकाल से लेकर 1540 ई तक चलने वाली राजस्थान की स्वतंत्र मुढा फदिया नाम से ज्ञात है। पश्चिमी क्षत्रपों के सिक्के पुष्कर (अजमेर) तथा सरवानियाँ (बाँसवाडा) से प्राप्त हुए।

कुषाणवशी शासक विम कडफिसस ने सर्वप्रथम भारत में सोने का सिक्का चलाया। कुषाण शासकों के सोने व ताँबे के शिवक खेतड़ी (सुनें) जमवारामगढ़ (जयपुर) तथा बीकानेर से प्राप्त हुए है।

प्रमुख पुस्तकें :-

➤ Inscriptions of Northem India Dr. D. R. Bhandarkar

➤Studies In Medieval Rajasthan History Dr. Manjeet Singh Ahluwalia (राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त हुए शिलालेखों पर पुस्तक)

➤Jains Inscriptions

P. C. Nahar

➤Coins of Marwar

B. N. Rcu (बी. एन. रेउ)

Adward Thomes एडवर्ड थामस ➤Cronicals of the Pathan Kings of Delhi

रियासतों में प्रचलित सिक्कें

राजस्थान की विभिन्न रियासतों के शासकों ने सोना, चाँदी, ताँबा व सीसा धातु के सिक्के जारी किए थे। राजपूताना /राजस्थान की रियासतों के सिक्कों के विषय पर केब (keb) ने 1893 ई में दी करेंसीज ऑफ दी हिन्दू स्टेट्स आफ राजपुताना नामक पुस्तक लिखी जिसका आज भी महत्व है। पुरातत्ववेत्ता एव मुद्राशास्त्री कनिधम, ई जे रेप्सन, विश्वेश्वरनाथ रेउ के आध्ययन से राजपुताना के सिक्कों के बारे में जानकारी मिलती है।

मेवाड़ रियासत के सिक्के
मेवाड रियासत में सोने, चोंदी व तांबे के सिक्के चलते थे। चाँदी के सिक्के ‘दम व रुपक तथा ताँबे के सिक्के ‘कर्षापण” कहलाते थे जिनका आकार चौकोर होता था। मेवाड़ में ताँबे के सिक्कों को डींगला, मिलाकी, त्रिशुलिया, नाथद्वारिया, भीडरिया इत्यादि नामों से भी जाना जाता था। मेवाड क्षेत्र में हूणों द्वारा प्रचलित चाँदी व ताँबे की ‘गधिया मुद्रा प्रचलित थी। इन मुद्राओं पर वृषभ, वराह, देवी आदि के अस्पष्ट चिह्न होने के कारण गधिया कहा जाता था। महाराणा कुंभा ने चौकोर एंव गोल चाँदी व ताँबे के सिक्के चलाए थे। महाराणा संग्राम सिंह द्वारा चलाए गए ताँबे के सिक्कों पर स्वास्तिक तथा त्रिशूल अंकित मिलता है। मुगल सम्पर्क के पश्चात मेवाड में एलची सिक्का, चित्तौडी, मिलाड़ी और उदयपुरी रुपया प्रचलन में आया था।

महाराणा स्वरूप सिंह (1842-1861 ई) ने जाली सिक्कों से व्यापार को नुकसान होने पर नए स्वरूपशाही सिक्के चलाए जिनके एक ओर “चित्रकुट उदयपुर तथा दूसरी और ‘दोस्ती लघन’ लिखा हुआ था। महाराणा स्वरूप सिंह के समय चाँदोढ़ी नामक स्वर्ण सिक्के का भी प्रचलन था जिसका वजन 116 ग्रेन था। चित्तौडगढ़ में चाँदी का शाहआलमी रुपया भी प्रचलित था। मेवाड़ रियासत के सलूम्बर ठिकाने (उदयपुर) की ताँबे की मुद्रा को पदमशाही कहते थे। महाराणा भीमसिंह (1778-1828 ई) ने अपनी बहन चन्द्रकँवर की स्मृति में चोंदोडी

रुपया, अठन्नी, चवन्नी, दोअन्नी, इत्यादि सिक्के चलाए थे। शाहपुरा (भिलवाडा) में प्रचलित सोने-चाँदी की मुद्राओं को ग्यारसन्दा या ग्यारसदिया तथा ताँबे की मुद्राओं को माधोशाही कहा जाता था।

मारवाड़ रियासत के सिक्के
मारवाड रियासत के प्राचीन सिक्कों को ‘पंचमार्कड कहा जाता था। प्रतिहार राजा भोज ने मारवाड़ में आदिवराह दम नामक सिक्के चलाए। मारवाड़ में कन्नौज के गहड़वालों की शैली के सिक्कों का प्रचलन रहा जिन्हे गजशाही सिक्के कहा गया है। 1720 ई में महाराजा अजीत सिंह ने अपने नाम के सिक्के चलाए। मुगलकाल में मारवाड रियासत में जोधपुर, पाली, सोजत, एवं नागौर में टकसाले थी। जोधपुर के सिक्कों पर तलवार व झाड़ (7 या 9 टहनियों वाला झड) का चिन्ह अंकित था।

विजयसिंह (1752-1793 ई.) ने 1781 ई में गुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय से भारवाड में टकसाल खोलने की अनुमति प्राप्त की तथा अपने नाम के विजयशाही सिक्के चलाए। इन्हें बाइसंदा भी कहा जाता था। विजयशाही सिक्कों पर 9 टहनियों वाला झाड़ राजचिह्न के रूप में अंकित था। 1858 ई से सिक्कों पर शाहआलम द्वितीय के स्थान पर महारानी विक्टोरिया का नाम अंकित किया जाने लगा।

जोधपुर टकसाल में निर्मित सोने के सिक्के को मोहर कहते थे जिसका वजन लगभग 170 ट्रेन रहता था। मोहर पर झाड एवं तलवार का अंकन होता था। विजयसिंह की मोहर पर शाहआलम द्वितीय तथा तख्त सिंह की मोहर पर विक्टोरिया नाम अकित रहता था। महाराजा तखा सिंह के समय जोधपुर टकसाल के अध्यक्ष अनाड़ सिंह ने सिक्को पर अपना चिह्न रा उत्कीर्ण किया, अत ये सिक्कों कुरूरिया कहलाये।

सोजत (पाली) में लल्लूलिया रुपया प्रचलित था। 1857 की क्राति के पश्चात् सोजत की टकसाल के सिक्कों पर श्रीमहादेव व श्रीमाताजी अंकित होता था। मारवाड़ में डब्बूशाही एंव भीमशाही ताँबे के सिक्के प्रचलित थे।

आमेर (जयपुर) रिसासत के सिक्के
आमेर के कछवाहा शासकों ने मुगल सम्राट अकबर से संबंध स्थापित कर अपनी टकसाले स्थापित की थी। मुगलों से निकट संबंध होने के कारण अन्य राज्यों की तुलना में यहीं सर्वप्रथम टकसाल स्थापित करने की आज्ञा दी गई। जयपुर रियासत की टकसाले आमेर, जयपुर, सवाई माधोपुर, रूपवास, सूरजगढ़ व चरण (होतडी) में थी। जयपुर रियासत में गधिया झाडशाही, मुहम्मदशाही, हाली प्रकार के सिक्के प्रचलित थे। इस रियासत की मुद्रा को झाडशाही कहते थे. क्योंकि उसके उपर 6 टहनियो के झाड का चिह्न अंकित रहता था।

महाराजा रामसिंह द्वितीय (1835-1880) और महाराजा माधोसिंह द्वितीय (1880-1922) ने स्वर्ण मुद्राओं का प्रचलन किया। महाराजा जगत सिंह द्वितीय (1803-1818) ने अपनी प्रेयसी रसकपूर (वैश्या) के नाम से सिक्के चलाए। महाराजा माधोसिंह द्वितीय द्वारा चलाए गए रुपए को हाली सिक्का कहा जाता था। 1760 ई से जयपुर में ताँबे के सिक्के का प्रचलन माना जाता है जिसे आङ्गाही पैसा कहते थे। इसका वजन 262 ग्रेन होता था। 1856 ई के बाद सिक्कों के एक ओर महारानी विक्टोरिया का नाम और दूसरी ओर शासक नाम उत्कीर्ण रहता था।

अलवर रियासत के सिक्के
टकसाल राजगढ़ में थी। यहाँ पर था। यहाँ के ताँबे के सिक्को को अखैशाही, रावशाही, ताँबे के रावशाही टक्का, अंग्रेजी पाव आना सिक्का आदि। अलवर राज्य की चलने वाले (1772 से 1876 ई. तक) स्थानीय सिक्कों को रावशाही रुपया कहा जाता था, जो चाँदी का रावशाही टक्का कहा जाता था। सिक्कों पर भाला, तलवार, फूल आदि चिह्न उत्कीर्ण है।

भरतपुर रियासत के सिक्के
इस रियासत की टकसाले डीग और भरतपुर में थी। 1763 ई. में महाराजा सूरजमल (1756-1763) ने चाँदी के शाहआलम नामक सिक्के चलाए।

घौलपुर रियासत के सिक्के
धौलपुर रियासत में प्रचलित सिक्कों को तर्मचाशाही कहा जाता था क्योंकि उन पर तमचे का चिह्न उत्कीर्ण होता था।

करौली रियासत के सिक्के
सर्वप्रथम महाराजा माणकपाल ने 1780 ई. में चाँदी व ताँबे के सिक्के उलवाये जो माणकशाही कहलाए। इन सिक्को पर कटार और झाड़ के चिह्न अंकित थे. अत इन्हें कटार झाडशाही सिक्के भी कहा जाता था।

कोटा रियासत के सिक्के
कोटा रियासत की टकसाले कोटा, गागरोन, एवं झालारापाटन में थी। प्रारम्भ में कोटा में गुप्तकालीन तथा हूणों के सिक्को का प्रचलन था। मध्यकाल में माण्डू तथा दिल्ली सल्तनत के सिक्के प्रचलित थे। कोटा रियारसत में डाली, मदनशाही, गुमानशाही, लक्ष्मणशाही नामक सिक्के प्रचलित थे।

बंदी रियासत के सिक्के
बूँदी रियासत में रामशाही, कटारशाही, हाली, चेहरेशाही, ग्यारह-सना नामक सिक्के प्रचलित थे। ग्यारह-सना सिक्का मुगल सम्राट अकबर द्वितीय (1806-1837) के शासन के 11 वे वर्ष अर्थात 1817 ई में प्रचलित था। 1859 से 1886 ई. के मध्य रामशाही सिक्का प्रचलित था। कटारशाही सिक्के महाराव रामसिंह के समय प्रचलित थे। हाली रुपये पर एक ओर फारसी में सिक्का मुबारक साहिब किरन शान शाह आलम तथा दूसरी तरफ ‘जर्ब सन् 16 जुलूस मैमनत मानूस’ अंकित रहता था।

झालावाड़ रियासत के सिक्के
यहाँ पर पुराने मदनशाही (1837-1857 तक) नये मदनशाही (1857-1891 तक) पृथ्वी सिंह के सिक्के प्रचलित थे।

सिरोही राज्य के सिक्के यहाँ पर मेवाड़ का चाँदी का भीलाडी रुपया और मारवाड का ताँबे का ढब्बूशाही रुपया प्रचलित था। जैसलमेर रियासत के सिक्के जैसलमेर रियासत में चोंदी का मुहम्मदशाही, अवैशाही, तथा ताँबे का डोडिया सिक्का प्रचलित था। 1756 ई. में महारावल अखयसिंह ने चाँदी का अखयशाही / अखैशाही सिक्का चलाया। डोडिया सिक्का आकर में छोटा था अत इसका प्रयोग कौड़ियों की तरह किया जाता था। पुट्ठा मुद्रा महारावल जवाहरसिंह द्वारा जारी की गई।

बीकानेर रियासत के सिक्के
यहाँ पर शाहआलम शैली के सिक्के तथा गजशाही सिक्के प्रचलित थे। महाराजा गजसिंह के काल (1746-1787 ई) में चाँदी का गजशाही सिक्का प्रचलित था। बीकानेर रियासत के शासको ने शाहआलम शैली के सिक्कों (मुगल सम्राट शाहआलम के नाम के सिक्के) पर अपने विशेष चिहुन भी उत्कीर्ण करवाये जिनमें गजसिंह ने ध्वज, सूरत सिंह ने त्रिशुल, रतन सिंह ने नक्षत्र, सरदार सिंह ने छत्र तथा दूँमरसिह ने बँवर के चिह्न अंकित कराये। गंगाशाही सिक्कों पर एक ओर सम्राज्ञी विक्टोरिया का चेहरा व अंग्रेजी में विक्टोरिया एम्प्रेस (VICTORIA EMPRESS) लिखा होता था और दूसरी ओर देवनागरी तथा उर्दू लिपि में महाराजा गंगासिंह बहादुर अंकित होता था बीकानेर रियासत के सिक्कों पर ध्वज त्रिशूल नक्षत्र छत्र चवर और मोरचल का चिन्ह अंकित होता था

किशनगढ़ रियासत के सिक्के :
– किशनगढ़ रियासत में शाहआलम नामक सिक्का प्रचलित था। यहाँ मेवाड की चौदकुंवरी के नाम पर चाँदोठी रुपया प्रचलित था जिसका प्रयोग दान पुण्यादि कार्यों में होता था।

बाँसवाड़ा रियासत के सिक्के :-
– यहाँ पर सालिमशाही, लक्ष्मणशाही नामक सिक्के प्रचलित थे। महारावल लक्ष्मणसिंह (1844-1905) ने1870 ई में लक्ष्मणशाही सिक्के चलाए।

डूंगरपुर रियासत के सिक्के
कर्नल निक्कसन के अनुसार डूंगरपुर रियासत में चाँदी का त्रिशूलिया तथा पत्रिसीरिया सिक्के प्रचलित थे। इनके अलावा उदयशाही, मेवाड़ के चित्तौडी तथा प्रतापगढ़ के सालिमशाही रुपयों का प्रचलन था।

प्रतापगढ़ रियासत के सिक्के :
प्रतापगढ़ रियासत में सामान्यतया माण्डू एवं गुजरात के सिक्कों का प्रचलन था। प्रतापगढ़ में सर्वप्रथम 1784 ई में महारावल सालिमसिंह ने चाँदी के सालिमशाही सिक्के चलाए। प्रतापगढ़ में प्रचलित एक ताँबे के सिक्के पर श्री उत्कीर्ण था। इनके अलावा मुबारकशाही, आलमशाही, सिक्का मुबारकशाह लन्दन प्रचलित थे।

ब्रिटिश प्रभाव वाले सिक्के स्वरूपशाही (मेवाङ), आलमशाही (मारवाङ), डूंगरशाही (बीकानेर), गगाशाही (बीकानेर)।

मुगल प्रभाव वाले सिक्कें चांदोडी, चित्तौडी, मिलादी, सिक्का एलची, शाहआलमी (मेवाड़ रियासत के सिक्के). मुहम्मदशाही (जयपुर व जैसलमेर), विजयशाही (जोधपुर)।

अन्य प्रमुख सिक्के : फूतारियो (उदयपुर राज्य का प्राचीन सिक्का), बोपूसाही व इकतीसंदा (कुचामनी सिक्का), चैवरशाही (टॉक रियासत का सिक्का), बिजेशाही या विजयशाही (पाली टकसाल का सिक्का), अमरशाही (नागौर टकसाल का सिक्का), ग्यारसदा व मध्धोशाही (शाहपुरा), बाइसदा या विजयशाही (मारवाड), लल्लूशाही (सोजत), ढब्बूशाही-तौबे का सिक्का (मारवाड), अठ्यासिया व चॉदशाही मिडता टकसाल का सिक्का), तमचाशाही (धौलपुर), गधिया सिक्के (मेवाङ), रावशाही (अलवर), एलची सिक्का (चित्तौड़ टकसाल का सिक्का), आदि। राजस्थान में यूनानी राजाओं के सिक्के नलियासर, बैराठ तथा नगरी से प्राप्त हुए है।

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