निजी विश्वविद्यालय : स्वायत्तता की आड़ में शिक्षा का व्यावसायीकरण
शिक्षा में स्वतंत्रता का अर्थ जवाबदेही से मुक्ति नहीं हो सकता
भारत में शिक्षा को सदा लोकहित और राष्ट्रनिर्माण का माध्यम माना गया है। निजी विश्वविद्यालयों को स्वायत्तता देने का उद्देश्य भी यही था कि शिक्षा में गुणवत्ता, प्रतिस्पर्धा और नवाचार को बढ़ावा मिले। परंतु बीते वर्षों में इस स्वायत्तता का अर्थ धीरे-धीरे नियंत्रण से मुक्ति और जवाबदेही से बचाव बन गया है। आज देश के अनेक निजी विश्वविद्यालय शिक्षक संकट, फर्जी मान्यता, अधोसंरचना की कमी और वित्तीय अपारदर्शिता जैसी गंभीर समस्याओं से ग्रस्त हैं। शिक्षा, जो एक सामाजिक दायित्व थी, अब एक वाणिज्यिक उत्पाद में तब्दील होती जा रही है। जहां ज्ञान नहीं, डिग्रियां बिक रही हैं।
विधिक ढांचा और जिम्मेदारी
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम, 1956 और उसके तहत बने यूजीसी रेगुलेशन्स, 2003 में स्पष्ट किया गया है कि हर निजी विश्वविद्यालय राज्य सरकार की अधिसूचना से स्थापित होगा और यूजीसी निरीक्षण के अधीन रहेगा। साथ ही प्रत्येक राज्य ने अपने निजी विश्वविद्यालय अधिनियम बनाए जैसे राजस्थान निजी विश्वविद्यालय अधिनियम, 2005, इनमें विश्वविद्यालयों को पाठ्यक्रम, परीक्षा, नियुक्ति और वित्तीय प्रबंधन में स्वतंत्रता दी गई है। लेकिन यही स्वतंत्रता तब समस्या बन जाती है। जब विश्वविद्यालय खुद को नियामक निकायों और राज्य सरकारों की निगरानी से ऊपर मानने लगते हैं। राज्य और यूजीसी के बीच अधिकारों का टकराव, निरीक्षण की शिथिलता और राजनीतिक संरक्षण ने इन संस्थानों को अपना स्वयंभू साम्राज्य बनाने का अवसर दिया है। स्वायत्तता का अर्थ यह नहीं कि विश्वविद्यालय अपने नियम स्वयं बनाए और नियामक संस्थाओं से ऊपर हो जाए। बल्कि इसका अर्थ है राज्य नियंत्रण से सीमित मुक्ति, पर नैतिक और शैक्षणिक उत्तरदायित्व में वृद्धि है।
न्यायपालिका की चेतावनी
सर्वोच्च न्यायालय ने कई निर्णयों में शिक्षा के व्यावसायीकरण पर गंभीर चिंता व्यक्त की है। प्रोफेसर यशपाल बनाम छत्तिसगढ़ राज्य (2005) में कोर्ट ने कहा – राज्य द्वारा मात्र अधिनियम पारित कर देने से कोई संस्था विश्वविद्यालय नहीं बन जाती जब तक कि वह यूजीसी के मानकों का पालन न करे। मॉर्डर्न डेंटल कॉलेज बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2016) में कहा गया – शिक्षा कोई व्यापार नहीं है; यह सार्वजनिक कर्तव्य है। अतः नियमन आवश्यक है। इन निर्णयों से स्पष्ट है कि स्वायत्तता का अर्थ नियंत्रण से छूट नहीं, बल्कि मानकों के प्रति अधिक जिम्मेदारी है।
स्वायत्तता की आड़ में अनियमितताएं
आज कई निजी विश्वविद्यालयों में शिक्षक नियुक्ति में पारदर्शिता का अभाव, फर्जी मान्यता व भ्रामक विज्ञापन, वित्तीय अनियमितता व फीस में मनमानी, परीक्षा प्रणाली में हेराफेरी और छात्र–शिक्षक अधिकारों का हनन जैसी समस्याएं आम हैं। ये संस्थान निरीक्षण या कार्रवाई की बात आने पर स्वायत्तता का हवाला देकर नियमन से बच निकलते हैं। परिणामस्वरूप, शिक्षा का सामाजिक विश्वास कमजोर पड़ता जा रहा है।
शिक्षा की आत्मा पर बाजार की परछाई
शिक्षा सेवा है, व्यवसाय नहीं। परंतु जब विश्वविद्यालय ब्रांड और राजस्व की भाषा में सोचने लगते हैं, तो शिक्षा की आत्मा मरने लगती है। आज निजी विश्वविद्यालय विज्ञापन और ग्लैमर पर तो करोड़ों खर्च करते हैं, लेकिन शोध, शिक्षक प्रशिक्षण और सामाजिक उत्तरदायित्व पर न्यूनतम निवेश करते हैं। यह प्रवृत्ति शिक्षा को डिग्री उद्योग में बदल रही है जहां ज्ञान नहीं, डिग्री बिकते हैं।
सुधार की दिशा
यदि शिक्षा को पुनः जनसेवा की धारा में लाना है, तो कुछ ठोस सुधार आवश्यक हैं – 1. यूजीसी और राज्य निरीक्षण रिपोर्टें सार्वजनिक हो। ताकि जनता और छात्र जान सकें कि कौन-सा विश्वविद्यालय मानकों पर खरा उतरता है। 2. फर्जी मान्यता और डिग्री पर आपराधिक कार्रवाई। केवल जुर्माना नहीं, प्रबंधन की व्यक्तिगत जवाबदेही तय हो। 3. शिक्षक–छात्र अनुपात और वेतन पारदर्शी हों। यह जानकारी विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर उपलब्ध कराना अनिवार्य किया जाए। 4. सामाजिक उत्तरदायित्व कानूनी रूप से सुनिश्चित हो। विश्वविद्यालयों को अनुसंधान, छात्रवृत्ति और सामुदायिक योगदान में निवेश अनिवार्य करना चाहिए। 5. यूजीसी और राज्य निरीक्षण तंत्र को तकनीकी रूप से सशक्त बनाया जाए। नियमित निरीक्षण, मूल्यांकन और वार्षिक ऑडिट को बाध्यकारी किया जाए।
निष्कर्ष
स्वायत्तता का उद्देश्य नवाचार और स्वतंत्रता है, परंतु जब यही स्वायत्तता जवाबदेही से मुक्त हो जाती है, तो वह शिक्षा की आत्मा को कमजोर कर देती है। निजी विश्वविद्यालय तभी सम्माननीय बन सकते हैं जब वे पारदर्शिता, गुणवत्ता और सामाजिक दायित्व को अपना धर्म मानें। अन्यथा, आने वाला समय हमें ऐसे समाज में छोड़ देगा जहाँ शिक्षित लोग तो बहुत होंगे, पर विवेक, मूल्य और नैतिकता शून्य होंगे।
सागर कछावा, शिक्षा विश्लेषक एवं संस्थापक, सद्भावना लोक फाउंडेशन, जयपुर
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