काला पानी की सजा भोगने वाले महान क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त
"क्रूर हुक़ूमत ने लाख मिटाने की कोशिश की, मगर हर दिल में अक्स रह गया, तस्वीर रह गई।"
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में कुछ तारीखें ऐसी हैं, जिनका वैसे तो क्रांतिकरी घटनाओं से संबंध है, लेकिन उनका भारतीय इतिहास में अपना अलग ही महत्व है। 8 अप्रैल 1929 ऐसी ही एक तारीख़ है, जब क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त और सरदार भगत सिंह ने दिल्ली में स्थित केन्द्रीय असेंबली में बम फेंक कर ब्रिटिश हुकूमत को हिला दिया था। क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य थे और भगत सिंह के खास दोस्त थे। बटुकेश्वर दत्त को काला पानी की सजा हुई थी, उन्होंने देश की आजादी के लिए अंडमान की सेलुलर जेल में रहते हुए अनेक यातनाएं सहीं, लेकिन कभी माफी नहीं मांगी। आज माफी मांगने वालों को वीर बताया जा रहा है और बटुकेश्वर दत्त जैसे क्रांतिकारियों को भुलाया जा रहा है। हिंदुस्तान की आजादी के लिए तमाम पीड़ा झेलने वाले क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी बटुकेश्वर दत्त का जीवन भारत की स्वतंत्रता के बाद भी दंश, पीड़ाओं, और संघर्षों की गाथा बना रहा और उन्हें वह सम्मान नहीं मिल पाया जिसके वह हकदार थे। आज़ाद भारत में स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों की उपेक्षा आम बात है और इस श्रेणी में बटुकेश्वर दत्त का भी नाम लिया जा सकता है।
बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवंबर 1910 को बंगाल प्रांत के बर्धमान जिले के औरी गांव में गोष्ठ बिहारी दत्त और कामिनी देवी के घर हुआ था।। उनके पिता गोष्ठ बिहारी दत्त कानपुर में नौकरी करते थे। बटुकेश्वर दत्त को बीके दत्त, बट्टू और मोहन के नाम से जाना जाता था। उनकी शिक्षा दीक्षा कानपुर शहर में ही हुई थी। कानपुर शहर में ही उनकी मुलाकात चंद्रशेखर आजाद से हुई थी। उन दिनों चंद्रशेखर आजाद झांसी, कानपुर और इलाहाबाद के इलाकों में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियां चला रहे थे। 1924 में भगत सिंह भी कानपुर आए थे, बटुकेश्वर दत्त की पहली मुलाकात भगत सिंह से 1924 में कानपुर में हुई थी। देशप्रेम के प्रति बटुकेश्वर दत्त के जज्बे को देखकर भगत सिंह उनको पहली मुलाकात से ही अपना दोस्त मानने लगे थे। 1928 में जब हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में हुआ तो बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह उस संगठन के अहम सदस्य थे। बम बनाने के लिए बटुकेश्वर दत्त ने खास ट्रेनिंग ली और इसमें महारत हासिल कर ली थी। 17 दिसंबर 1928 को लाहौर में अंग्रेज पुलिस अधिकारी सांडर्स की हत्या करने के बाद सरदार भगत सिंह बंगाल पहुंचे और वहां पर बटुकेश्वर दत्त से मिलकर कुछ बड़ा करने की योजना बनाने लगे। 1929 में चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में हुई हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के क्रांतिकारियों की बैठक में बड़ा धमाका करने का निर्णय लिया गया। ट्रेड डिस्प्यूट बिल व पब्लिक सेफ्रटी बिल के खिलाफ एचएसआरए ने सरदार भगत सिंह के सुझाव पर असेंबली में बम फेंककर गिरफ्तारी देने और अपने दल के विचारों को जनता के बीच ले जाने की योजना बनाई। जब असेंबली में बम विस्फोट के लिए क्रांतिकारियों के चयन की बात आई तो भगत सिंह व सुखदेव का नाम आया। इस पर शांत रहने वाले बटुकेश्वर दत्त लगभग उबल पड़े, उन्होंने दल का सबसे पुराना साथी बताते हुए इस एक्शन में खुद को शामिल करने की मांग की। अंततः काफी बहस के बाद योजना बनी कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ही असेंबली में बम फेंकने जायेंगे और आजाद एवं अन्य दो सदस्य उनको बचाने की कोशिश करेंगे। भगत सिंह ने आगे बढ़कर बटुकेश्वर दत्त के नाम का समर्थन किया था। दत्त को इस बात की बेहद खुशी हुई कि भगत सिंह ने उनके नाम पर सहमति व्यक्त की है। योजना की जिम्मेदारी मिलने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 3 अप्रैल व 6 अप्रैल 1929 को संयुक्त रूप से असेंबली भवन का निरीक्षण किया और सारी चीजों के बारे में एक सटीक व्यूह रचना तैयार कर ली। दिल्ली के कश्मीरी गेट पर रामनाथ फोटोग्राफर के यहां दोनों क्रांतिकारियों ने अपनी तस्वीरें खिंचवाईं। बाद में उसी फोटो का सभी स्थानों पर प्रयोग हुआ। 8 अप्रैल 1929 को असेंबली की कार्रवाई 11 बजे आरंभ हुई। दिल्ली की सेंट्रल असेंबली दो बमों के धमाके से दहल गई थी। असेंबली के अध्यक्ष विट्ठल भाई पटेल ट्रेड डिस्प्यूट बिल पर रूलिंग देने को खड़े हुए थे, तभी भगत सिंह ने जेब से बम निकाला और उस स्थान पर फेंका जहां कोई नहीं बैठा था। तेज विस्फोट के साथ वहां अंधेरा छा गया। लोगों के बचने-छिपने और भाग निकलने की हड़बड़ी के बीच बेखौफ बटुकेश्वर दत्त ने दूसरा बम फेंका, जिससे गाढ़ा नीला धुंआ निकला। भगत सिंह ने रिवाल्वर से दो हवाई फायर भी किये। धुंआ जब छंटा, उस वक्त असेंबली के सिर्फ चार सदस्य अपनी सीटों पर मौजूद थे। वे थे, मोतीलाल नेहरू, पंडित मदन मोहन मालवीय, मोहम्मद अली जिन्ना और सर जेम्स क्रेयर।

असेंबली में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के मुख से निकले इंकलाब-जिंदाबाद, साम्राज्यवाद का नाश हो और ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ के नारे गूंज रहे थे। बटुकेश्वर दत्त ने गैलरी से गुलाबी रंग के कई पर्चे उछाले, पर्चों में लिखे शब्दों की शुरुआत फ्रांसीसी क्रांति वैलियां के कथन, “बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंचे विस्फोट की जरूरत से होती है” से थी। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के पास वहां से भाग निकलने का पूरा मौका था लेकिन वे तो अपनी गिरफ्तारी देने ही आए थे। इस एक्शन का मकसद ज़ुल्मी कानूनों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन और जनता के मन से अंग्रेजी राज का भय दूर करना था। बम विस्फोट के पीछे भी किसी की जान लेने या खून बहाने की मंशा नहीं थी। इसलिए मामूली लेकिन अधिक आवाज करने वाले बम बनवाए गए और उन्हें असेंबली के खाली हिस्से में फेंका गया। गिरफ्तारी की पेशकश के बाद भी आशंकित पुलिस इंस्पेक्टर जॉनसन और सार्जेंट टैरी डरते-डरते भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के पास पहुंचे थे। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली से थाने के बीच भी इंकलाब जिंदाबाद के बुलंद नारों का सिलसिला जारी रखा। असेंबली बम कांड के बाद क्रांतिकारी भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त पर मुकदमा दर्ज कर कानूनी कार्रवाई शुरू की गई। असेंबली की तरह अदालती कार्यवाही को भी, उन्होंने अंग्रेजी राज की गुलामी की ख़िलाफत और देश की जनता को जगाने का औजार बनाया। 7 मई 1929 को मजिस्ट्रेट एफ.बी. पूल की अदालत में चार्जशीट पेश किए जाने और फिर 4 जून से सेशन जज लियोनार्ड मिडिलस्टोन के सामने चली हर दिन की अदालती कार्यवाही में पेश भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के लगाए इंकलाब जिंदाबाद और साम्राज्यवाद का नाश हो के नारे गूंजते रहे। उन्हें खामोश करने की हर कोशिश हथकड़ी, बेड़ी और बलप्रयोग नाकाम रहे। उन्हें अपने बयान के दिन का इंतजार था। 6 जून को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त का लिखित बयान उनके वकील आसफ अली ने अदालत में पढ़ा, जिसमें बचाव की कोशिश की जगह बम क्यों फेंका, का विस्तार से जिक्र था। अदालत ने 9 जून को इस बयान के प्रकाशन-प्रचार पर रोक लगाई। लेकिन क्रांतिकारी साथी 6 जून को ही इसे अखबारों को उपलब्ध करा चुके थे। उसकी छपी प्रतियां भी एक से दूसरे हाथ से गुजरती दूर तक पहुंच चुकी थी। 12 जून 1929 को जज मिडिलस्टोन ने 41 पेज के फैसले में आरोपों को सही करार देते हुए दोनों को आजीवन कारावास, कालापानी की सजा सुनाई। सजा के बाद दोनों क्रांतिकारियों को लाहौर जेल भेज दिया गया, जहां पर सांडर्स हत्याकांड का मुकदमा शुरू हो चुका था। सांडर्स हत्याकांड में भगत सिंह के साथ जिन 25 क्रांतिकारियों को पुलिस ने अभियुक्त बनाया था, उसमें बटुकेश्वर दत्त भी शामिल थे। 7 अक्तूबर 1930 को इस मामले में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई थी। सबूतों के अभाव में बटुकेश्वर दत्त बरी कर दिए गए थे। लेकिन असेंबली बम कांड में वे पहले से ही सजायाफ्ता थे।
16 जुलाई 1930 को लाहौर सेंट्रल जेल का माहौल बेहद गमगीन था। उस दिन बटुकेश्वर दत्त को लाहौर सेंट्रल जेल से मुलतान जेल भेजा जाना था और इस प्रकार वे अपने प्रिय साथी भगत सिंह से बिछुड़ने वाले थे। अंग्रेज सरकार अच्छी तरह समझ चुकी थी कि क्रांतिकारियों के दो ही मुख्य नेता हैं- भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त। इसलिए दोनों को अलग करने की योजना बनाई गई। इसके जरिए अंग्रेजी सरकार क्रांतिकारियों के आपसी समन्वय को कमजोर करना चाहती थी। जब वे लाहौर सेंट्रल जेल से विदा हो रहे थे, सभी क्रांतिकारियों के चेहरे उदास थे, लेकिन आंखों में भविष्य के सपने थे। भगत सिंह ने अपनी डायरी निकाली और उसमें दत्त का हस्ताक्षर लिया। लाहौर षड्यंत्र केस का फैसला आ जाने के बाद भगत सिंह ने एक बेहद मार्मिक पत्र बटुकेश्वर दत्त को लिखा- ‘मैं फांसी के तख्ते पर अपने प्राण त्यागकर दुनिया को दिखाऊंगा कि क्रांतिकारी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए खुशी-खुशी जान कुर्बान कर सकते हैं। मैं तो मर जाऊंगा, लेकिन तुम आजीवन कारावास की सजा भुगतने के लिए जीवित रहोगे और मेरा दृढ़ विश्वास है कि तुम यह सिद्ध करोगे कि क्रांतिकारी अपने उद्देश्यों के लिए आजीवन तिल-तिल कर यंत्रणाएं सहन कर सकते हैं। मृत्युदंड पाने से तुम बचे हो और मिलने वाली यंत्रणाओं को सहन करते हुए दिखा सकोगे कि फांसी का फंदा, जिसके आलिंगन के लिए मैं तैयार बैठा हूं, यंत्रणाओं से बच निकलने का एक उपाय नहीं है। जीवित रहकर क्रांतिकारी जीवन भर मुसीबतें झेलने की दृढ़ता रखते हैं’।
अपनी मां को लिखे पत्र में भगत सिंह ने कहा- ‘मैं तो जा रहा हूं, लेकिन बटुकेश्वर दत्त के रूप में अपना एक हिस्सा छोड़े जा रहा हूं’। और सच में, बटुकेश्वर दत्त ने पूरी जिंदगी हजारों मुसीबतों को झेलते हुए भी क्रांतिकारी दल के सपने को जिंदा रखा व उसे आगे बढ़ाते रहे। लाहौर से मुलतान, सलेम, अंडमान, दिल्ली और फिर पटना की बांकीपुर जेल उनके संघर्षों की गाथा से भरी पड़ी हैं। आजादी के समय तक उनका जीवन लगभग एक बंदी का जीवन रहा। जेलों में यातनाओं की बर्बर शृंखलाओं ने उनके शरीर को पूरी तरह तोड़ दिया, वे बोन कैंसर के शिकार हो गए लेकिन उनकी क्रांतिकारिता पल भर के लिए भी धूमिल नहीं हुई।
23 मार्च 1931 को लाहौर सेंट्रल जेल में सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई। बटुकेश्वर दत्त को भगत सिंह के साथ फांसी की सजा नहीं मिलने का मलाल जीवन भर रहा। भगत सिंह की फांसी के साथ ही एचएसआरए क्रांतिकारी संगठन लगभग खत्म हो गया। संगठन के मुख्य कार्यकर्ता चंद्रशेखर आजाद, जतीन्द्रनाथ दास एवं भगवती चरण वोहरा पहले ही शहीद हो गए थे। अन्य सभी क्रांतिकारी भी गिरफ्तार हो चुके थे। लेकिन उम्मीद की रोशनी खत्म नहीं हुई थी। सजायाफ्ता क्रांतिकारियों का एक दल अब कालापानी की ओर रवाना हो चुका था। 23 जनवरी 1933 को बटुकेश्वर दत्त अपने अन्य साथियों विजय कुमार सिन्हा, कमलनाथ तिवारी, महावीर सिंह, कुंदनलाल एवं डॉ. गयाप्रसाद के साथ अंडमान सेलुलर जेल पहुंचे। अंडमान जेल को यूं ही कालापानी नहीं कहा जाता था। वह एक तरह से यातना गृह ही था। कैदियों की दुर्दशा देखकर बटुकेश्वर दत्त से रहा नहीं गया और उन्होंने कैदियों के साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार पर रोक लगाने की दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ एक बार फिर मोर्चा संभाल लिया। जेल में बंद रहकर बटुकेश्वर दत्त सिर्फ यही काम कर सकते थे और उसे ही उन्होंने आजादी का पर्याय बना दिया। वे अंडमान जेल में संघर्ष के नायक बनकर उभरे। फरवरी 1933 में उन्होंने अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर भूख हड़ताल शुरू कर दी। ग्रेड सी के सभी 56 कैदी भूख हड़ताल के समर्थन में आ गये। हड़ताल के पांचवें दिन जेल अधिकारियों ने कहर ढाया। क्रांतिकारी महावीर सिंह को दस-बारह लोगों ने जमीन पर पटक दिया और उनकी नाक के माध्यम से मुंह में नली डालकर दूध उड़ेल दिया, जो उनके फेफड़े में चला गया। रात में उनकी मौत हो गई। अंडमान प्रशासन के लिए यह सामान्य घटना थी, लेकिन क्रांतिकारी फिर भी भूख हड़ताल पर डटे रहे। हर दिन उनकी बेरहमी से पिटाई की जाती, लेकिन उनके चेहरे पर निराशा के कोई भाव नहीं उभरते। अनशन के क्रम में पटना के रहने वाले मोहित मित्र और मोहन किशोर भी शहीद हो गये। 46 दिनों की लंबी भूख हड़ताल के बाद हड़तालियों की मांग स्वीकार की गई और भूख हड़ताल समाप्त हुई। इस आंदोलन के बाद क्रांतिकारी दल ने लड़कर बौद्धिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजनों में रियायत हासिल कर ली। सरकारी खर्च पर अब जेल में पत्र-पत्रिकाएं आने लगीं। भोजन व्यवस्था में सुधार, रौशनी की पर्याप्त व्यवस्था, पत्राचार की सुविधा, चिकित्सा सुविधा आदि मांगें मान ली गईं। जेल में पुस्तकालय की भी व्यवस्था हुई; रसोईघर का नियंत्रण भी बंदियों के हाथ में आ गया। उसके बाद बटुकेश्वर दत्त ने अपने साथियों के साथ हस्तलिखित पत्रिका का प्रकाशन, वाद-विवाद, राजनीतिक गोष्ठियों आदि के आयोजन की शुरूआत की, जो देश की आजादी के लिए समर्पित था। करीब 35 क्रांतिकारियों के साथ मिलकर कम्युनिस्ट कंसोलिडेशन की स्थापना की। बटुकेश्वर दत्त, विजय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, डाॅ. नारायण राय, जयदेव कपूर आदि क्रांतिकारी इन राजनीतिक गोष्ठियों के मुख्य केंद्रक थे।
अंडमान जेल में 1937 में दूसरी बार हड़ताल शुरू हो गई, जिसमें कुल 183 कैदियों ने भाग लिया। तीन वर्षों तक कैदियों ने अपने जिन अधिकारों को बनाए रखा, वे अधिकार अब छीनने लगे थे। इस बीच, 1935 के अधिनियम के आधार पर राज्यों में देशी सरकार बन गई थीं। बिहार विधानसभा में अंडमान के बंदियों की भूख हड़ताल को लेकर सवाल उठने लगे। तत्कालीन बिहार के प्रधानमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने इस संबंध में केंद्र सरकार व पोर्टब्लेयर सरकार को पत्र लिखा। अंडमान के कैदियों की भूख हड़ताल का असर देश की अन्य जेलों पर भी पड़ा और उनके समर्थन में लोग उतरने लगे। महात्मा गांधी ने अंडमान जेल में बंद कैदियों के रिहाई की मांग पुरजोर से उठाई। जेल अधिकारी जबरदस्ती दूध पिलाने की तरकीब से भूख हड़ताल खत्म करना चाहते थे। इस बीच कई बड़े राष्ट्रीय नेताओं ने सरकार को पत्र लिखकर भूख हड़ताल समाप्त कराने का आह्वान किया। जेल प्रशासन को क्रांतिकारियों के सामने झुकना पड़ा। सरकार ने अंततः आश्वासन दिया कि अंडमान के जेल में बंद कैदियों को भारत की जेलों में स्थानांतरित कर दिया जायेगा। इस प्रकार 18 जनवरी 1938 तक अंडमान से सभी कैदियों को देश के मुख्य स्थलों पर स्थानांतरित कर दिया गया। अंततः कालापानी से बटुकेश्वर दत्त दिल्ली की जेल पहुंचे, क्योंकि वे असेंबली बम कांड के कैदी थे। लेकिन तब तक उनकी हालत बेहद खराब हो चुकी थी। जेल में उनसे मिलने डा. राजेन्द्र प्रसाद पहुंचे और हालात से जवाहर लाल नेहरू को अवगत कराया। तब, बिहार की बांकीपुर जेल में एचएसआरए से जुड़े तकरीबन 40 बंदी थे, जिनमें अधिकांश अंडमान में भी थे। उसी समय डा. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में पाॅलिटिकल प्रिजनर्स रिलीफ कमिटी का गठन हुआ था। राजेन्द्र बाबू की समझदारी थी कि यदि बटुकेश्वर दत्त अपने अंडमान के साथियों के साथ बिहार की जेल में रहें, तो उनकी सेहत के लिए अच्छा होगा। वहां वे अपने साथियों के साथ घुल-मिल जायेंगे। उनके आग्रह पर बटुकेश्वर दत्त को बांकीपुर जेल, पटना में स्थानांतरित कर दिया गया। लेकिन उनकी हालत बिगड़ती ही चली गई। 28 जुलाई 1938 को बिहार के प्रधानमंत्री श्री कृष्ण सिंह को डा. राजेन्द्र प्रसाद ने पत्र लिखा और स्वास्थ्य के आधार पर उनकी रिहाई का अनुरोध किया। 1 सितंबर 1938 को महात्मा गांधी ने बंगाल के गवर्नर व कार्यवाहक वाइसराय को चिकित्सा के आधार पर बटुकेश्वर दत्त को रिहा करने का तार भेजा। 3 सितंबर 1938 को केंद्रीय असेंबली के सदस्य मोहन लाल सक्सेना दत्त का हालचाल लेने बांकीपुर जेल पहुंचे। 4 सितंबर को सर्चलाइट अखबार ने दत्त को रिहा करने की मांग की। इन आग्रहों के बाद 8 सितंबर 1938 को बटुकेश्वर दत्त बांकीपुर जेल से रिहा हुए और उसके बाद पटना में अपने बड़े भाई विशेश्वर दत्त के साथ जक्कनपुर में रहने लगे। बटुकेश्वर दत्त का स्वास्थ्य लगातार गिरते ही जा रहा था, लेकिन आजादी की लहरें इस वक्त उफ़ान मार रही थीं। अप्रैल 1939 में कानपुर किसान संघ एवं जिला राजनीतिक अधिवेशन में दत्त उपस्थित हुए। 1939-40 के वे कांग्रेस के अधिवेशन में भी शामिल हुए। 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में एक बार फिर उन्होंने सक्रिय भागीदारी निभाई। उन्हें पुनः मोतिहारी व मुजफ्फरपुर की जेल में बंद कर दिया गया और कई गंभीर यातनाएं दी गईं। इसके विरोध में वे पुनः भूख हड़ताल पर चले गये। जेल के खराब वातावरण से उनका फेफड़ा पूरी तरह बेकार हो गया था। तब 1945 में पटना निवास को ही होम इंटर्न बना दिया गया और वे पूरी तरह से नजरबंद कर दिए गये। कुछ दिनों के लिए देवघर में भी नजरबंद करके रखा गया। देश की आजादी के बाद ही उनकी रिहाई संभव हो सकी। जब बटुकेश्वर दत्त आजीवन कारावास से रिहा हुए तो सबसे पहले दिल्ली में उस जगह पर पहुंचे जहां उन्हें और भगत सिंह को असेंबली बम कांड के फौरन बाद गिरफ्तार करके हिरासत में रखा गया था। संघर्षों भरे जीवन में हार न मानने वाले बटुकेश्वर दत्त के लिए यह बेहद उदास करने वाले पल थे। हाल ही में देश आजाद हुआ था; गुलामी की यादें ताजा थीं। दिल्ली में खूनी दरवाजा वाली जेल की इमारत तोड़ी जा चुकी थी। वहां एक अस्पताल का निर्माण हो रहा था। वो कोठरी भी तोड़ी जा चुकी थी, जिसमें वे कैद रहे थे। वहां सिर्फ अब खाली मैदान था। कुछ लड़के-लड़कियां वहां बैडमिंटन खेल रहे थे। बटुकेश्वर वहीं बैठकर उन्हें खेलते हुए देखते रहे। एक लड़के ने उनसे सवाल किया कि आपकी भी खेल में दिलचस्पी है क्या? दत्त ने कहा नहीं! मैं उस कोठरी को देखने आया था, जहां असेंबली में बम फेंकने के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को रखा गया था। लड़के ने उनसे पूछा था, “ये भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त कौन थे?” बटुकेश्वर के दिल में एक झटका सा लगा; क्या लोग इतनी जल्दी भूल गए! सूनी आंखों से उस नौजवान को उन्होंने निहारा। जवाब दिए बिना उनके बोझिल कदम अपने रास्ते की ओर मुड़ गये। बटुकेश्वर दत्त सोचते जा रहे थे कि क्या देश के लिए जान कुर्बान करने वालों को इतना जल्दी भुला दिया जाता है। आजादी के बाद के दौर में भी बटुकेश्वर दत्त का जीवन संघर्षों से भरा रहा। उन्हें जीविकोपार्जन के लिए छोटे-छोटे काम करने पड़े, लेकिन उन्होंने कभी शर्मिंदगी महसूस नहीं की। आजाद भारत में बटुकेश्वर दत्त की जिंदगी तमाम आम लोगों की तरह रोजी-रोटी की जद्दोजहद के बीच गुजरी। 18 नवंबर 1947 को उन्होंने अंजलि देवी से शादी कर ली। 1954 में पत्नी को शिक्षिका की नौकरी मिलने तक नियमित आमदनी का कोई जरिया नहीं था। इस बीच परिवार में एक बेटी भी जुड़ गई थी। डॉ. राजेंद्र प्रसाद उनकी काफी फिक्र किया करते थे। राज्य सरकार को उन्होंने दत्त की मदद के लिए लिखा। सरकार ने रोजगार के लिए तो कुछ नहीं किया लेकिन घर निर्माण में मदद की। बटुकेश्वर ने बिस्कुट-डबल रोटी का कारखाना चलाने की नाकाम कोशिश की। एक बस परमिट हासिल करने के लिए लाइन में लगे, कमिश्नर ने स्वतंत्रता सेनानी से प्रमाणपत्र मांगा। दुखी बटुकेश्वर दत्त ने आवेदन वहीं फाड़ दिया। एक बार फिर डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सुध ली और उनकी फटकार के बाद परमिट मिला। लेकिन बस चलवाने का धंधा भी फेल रहा। 1963 में एक वर्ष के लिए बिहार विधान परिषद् की सीट पर उनका मनोनयन भी हुआ, लेकिन उन्होंने कभी भी किसी प्रकार की सुविधा का लाभ नहीं उठाया। यहां तक कि आवास का भी उपयोग नहीं किया।
बटुकेश्वर दत्त जब तक जीवित रहे, शहीद भगत सिंह के परिवार से जुड़े रहे। भगत सिंह की माता विद्यावती कौर भी उन्हें बेटा मानती थी। 1963 में जब बटुकेश्वर दत्त भगत सिंह के गांव खटकड़ कलां पहुंचे, तो पूरे गांव में जश्न का माहौल था। गांव वालों को ऐसा महसूस हो रहा था कि 33 वर्षों बाद बटुकेश्वर दत्त की शक्ल में भगत सिंह ही लौटा है। मां विद्यावती देवी बटुकेश्वर दत्त से लिपट कर रोती रहीं जैसे वह भगत सिंह से ही मिल रही हों। विद्यावती देवी ने बटुकेश्वर दत्त के परिवार को एक तरह से गोद ले लिया और उनकी बेटी की शादी का सारा जिम्मा उन्होंने ही संभाला।
1962 में एक मार्ग दुर्घटना में घायल होने के बाद बटुकेश्वर दत्त फिर नहीं सम्भल सके। 1964 से बिस्तर पर लग गये। बिगड़ती हालत के बीच बिहार सरकार ने उनके बेहतर इलाज के निर्देश दिये। पटना के बाद दिल्ली ले जाए गये। मायूस बटुकेश्वर ने तब पत्रकारों से कहा था कि जिस दिल्ली में असेंबली में बम फेंका, वहां कभी स्ट्रेचर में लाया जाऊंगा, ऐसा कभी नहीं सोचा था। पहले उन्हें सफदरजंग अस्पताल और फिर एम्स में रखा गया। क्रांतिकारी साथियों के अलावा तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, कांग्रेस अध्यक्ष के.कामराज भी उनका हाल जानने के लिए अस्पताल पहुंचे थे। पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन का तो इतना लगाव था कि वह कई बार मिलने के लिए आए और प्रतिदिन हाल-चाल जानते रहते थे। उन्होंने बटुकेश्वर दत्त से पूछा कि हम आपके लिए क्या कर सकते हैं? इस पर बटुकेश्वर दत्त ने कहा कि मेरे मरने के बाद मेरा अंतिम संस्कार हुसैनीवाला में मेरे साथियों के पास कर देना। उनके मरने के बाद उनकी अंतिम इच्छा पूरी की गई।
भगत सिंह की मां विद्यावती के लिए बटुकेश्वर दत्त भी उनके बेटे जैसे थे। वह बराबर उनके परिवार के संपर्क में रहीं। 1965 के शुरुआती दिनों में बटुकेश्वर दत्त की हालत बहुत बिगड़ गई थी। उन्हें बोन कैंसर था, भगत सिंह की मां विद्यावती देवी को जब इसका पता चला तब वे बहुत दुखी हुईं। वह इलाज के दौरान अधिकांश समय दिल्ली में रहीं, जबकि उस वक्त उनकी उम्र 85 वर्ष थी। उन्होंने अपने सारे पैसे बटुकेश्वर दत्त के इलाज पर खर्च कर दिये। 13 जुलाई 1965 को बटुकेश्वर दत्त की हालत अचानक गंभीर हो गई। जब इसकी सूचना माता विद्यावती देवी को मिली तो उनसे रहा नहीं गया और वे कार से दिल्ली पहुंच गईं। अस्पताल में बटुकेश्वर दत्त का सिर अपनी गोद में लिए बैठी रहीं। अपने आखिरी समय में भगत सिंह कह गए थे, “मैं तो चला जाऊंगा, लेकिन अपना एक हिस्सा बटुकेश्वर के रूप में छोड़े जा रहा हूं।” 17 जुलाई 1965 को अर्धचेतन दत्त के मुख से सिर्फ “मां-मां ‘ के शब्द फूट रहे थे। उस समय भी मां विद्यावती उनके पास मौजूद थीं। 20 जुलाई को उन्होंने आखिरी सांस ली। दत्त की इच्छा के मुताबिक उनका शव भारत-पाकिस्तान सीमा के नजदीक हुसैनीवाला उस जगह ले जाया गया, जहां 34 साल पहले उनके साथियों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव का अंतिम संस्कार हुआ था। बटुकेश्वर दत्त के शव के साथ मां विद्यावती और बहन अमर कौर दिल्ली से ही साथ थीं। 55 वर्ष के बटुकेश्वर दत्त की जीवनयात्रा 20 जुलाई 1965 को थमने के बाद प्रधानमंत्री सहित तमाम राजनेता उनके अंतिम दर्शन के लिए पहुंचे थे। उनका शव उस असेंबली हाउस (संसद भवन) भी ले जाया गया था, जहां 36 साल पहले उन्होंने और भगत सिंह ने बम फेंक कर आजादी के संघर्ष को नई धार दी थी। दिल्ली से फिरोजपुर के ट्रेन मार्ग के हर स्टेशन पर लोगों की भारी भीड़ उनके अंतिम दर्शन के लिए उमड़ी थी। पंजाब के मुख्यमंत्री रामकिशन जो स्वयं स्वतंत्रता सेनानी थे, कुछ क्रांतिकारी साथियों और मंत्रियों के सहयोग से शव वाहन को खींचते हुए भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु की समाधि के निकट बने चिता स्थल तक ले गए थे। तब उन्होंने कहा था कि 34 साल बाद बटुकेश्वर दत्त कभी न जुदा होने के लिए अपने साथियों के पास चले गए हैं।
बटुकेश्वर दत्त ने भगत सिंह के अंतिम शब्दों को हमेशा याद रखा और पूरी जिंदगी हर कदम पर यंत्रणाएं झेलते हुए क्रांतिकारी उद्देश्यों व आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाने के काम में लग रहे। ऐसे महान क्रांतिवीरों को नमन करना हर भारतवासी का कर्तव्य है।
“क्रूर हुक़ूमत ने लाख मिटाने की कोशिश की, मगर हर दिल में अक्स रह गया, तस्वीर रह गई।”
लेखक – धर्मपाल गांधी, अध्यक्ष, आदर्श समाज समिति इंडिया
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