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देश की प्रथम महिला बैरिस्टर थी कार्नेलिया सोराबजी – धर्मपाल गांधी


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देश की प्रथम महिला बैरिस्टर थी कार्नेलिया सोराबजी – धर्मपाल गांधी

देश की प्रथम महिला बैरिस्टर थी कार्नेलिया सोराबजी - धर्मपाल गांधी

देश की प्रथम महिला बैरिस्टर थी कार्नेलिया सोराबजी : आजादी से बहुत पहले जिस जमाने में महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता था। लड़कियों को स्कूल जाने की अनुमति नहीं थी, उस दौर में हिन्द की क्रांतिकारी बेटी कार्नेलिया सोराबजी ने विदेश में जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त की और कानून की पढ़ाई करके देश की प्रथम महिला बैरिस्टर बनने का गौरव हासिल किया। कार्नेलिया सोराबजी एक ऐसी महिला थीं, जिन्होंने बहुत-सी रूढ़िवादी परम्पराओं को तोड़कर महिलाओं की प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया। वह विदेश में पढ़ाई करने वाली पहली भारतीय महिला थीं और बॉम्बे विश्वविद्यालय से स्नातक करने वाली भी पहली महिला थीं; साथ ही ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई करने वाली पहली महिला थीं। वह ब्रिटेन के किसी भी विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने प्रथम भारतीय महिला थी। जिस जमाने में महिलाओं को घर से बाहर कदम रखने के लिए भी अनुमति की जरूरत पड़ती थी, उस जमाने में कार्नेलिया सोराबजी ने न सिर्फ घर बल्कि देश के बाहर भी कदम रखा और उन्होंने वो किया जो उस समय कोई महिला अपने सपने में भी नहीं सोच सकती थी। भारत और ब्रिटेन में कानून का अभ्यास करने वाली वह पहली भारतीय महिला वकील थीं।

कार्नेलिया सोराबजी का जन्म 15 नवंबर 1866 को ब्रिटिश भारत में बॉम्बे प्रेसीडेंसी के नासिक शहर में हुआ था। उनके माता-पिता लड़कियों की शिक्षा के पक्षधर थे। इसलिए उनके घर की तरफ से उनकी पढ़ाई में कोई बाधा नहीं आई। कार्नेलिया सोराबजी के माता-पिता पूना में लड़कियों का स्कूल चलाते थे। कार्नेलिया की प्रारंभिक शिक्षा घर पर और फिर स्कूल में हुई।

बॉम्बे यूनिवर्सिटी में लड़कियों को दाखिला लेने का अधिकार नहीं था, लेकिन कार्नेलिया पहली लड़की थीं, जिन्हें यूनिवर्सिटी में पढ़ने की इजाजत मिली। इसके बाद उस विश्वविद्यालय में लड़कियों की शिक्षा का मार्ग खुला। उन्होंने डेक्कन कॉलेज पूना में दाखिला लिया और कॉलेज की पहली छात्रा के रूप में डिग्री परीक्षा में अपने समूह में सर्वोच्च अंक प्राप्त किये। वह साहित्य में प्रथम श्रेणी की डिग्री के साथ बॉम्बे विश्वविद्यालय की पहली महिला स्नातक बनीं। परीक्षाओं में टॉप करने के बाद भी उन्हें सिर्फ इसलिए स्कॉलरशिप नहीं मिली, क्योंकि वह एक महिला थीं। छात्रवृत्ति नहीं मिलने की स्थिति में विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करना उनके लिए मुश्किल हो गया। उनकी ऑक्सफोर्ड पहुँचने की राह मुश्किलों से भरी हुई थी। लेकिन कोशिश करने वालों के लिए इस दुनिया में असंभव कुछ भी नहीं है। जब उन्हें स्कॉलरशिप नहीं मिली तो उनकी योग्यता और जुनून को देखते हुए पूना और बॉम्बे की कुछ प्रमुख अंग्रेजी महिलाओं ने उन्हें ऑक्सफोर्ड भेजने के लिए चंदा इकट्ठा किया और कार्नेलिया को बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए 1889 में इंग्लैंड भेजने की प्रक्रिया शुरू हुई। उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित सोमरविले कॉलेज में कानून की पढ़ाई के लिए प्रवेश लिया। वह न केवल ऑक्सफोर्ड में कानून की पढ़ाई करने वाली पहली महिला बनीं ,बल्कि ब्रिटिश विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाली पहली भारतीय महिला भी बनीं।

दुर्भाग्य से, एक महिला होने के नाते उन्हें कई बाधाओं का सामना करना पड़ा, खासकर यह कि उन्हें पुरुष छात्रों के साथ परीक्षा देने की अनुमति नहीं थी, क्योंकि “लंदन के परीक्षक ने एक महिला का मूल्यांकन करने से इन्कार कर दिया था”। कार्नेलिया को डर था कि इससे उनकी डिग्री का महत्व कम हो जायेगा। इसलिए उन्होंने अपील की और अंततः उन्हें पुरुष छात्रों के साथ परीक्षा देने की अनुमति मिल गई। यह एक बड़ी जीत थी और उच्च शिक्षा में लैंगिक समानता के संदर्भ में एक सही दिशा में उठाया गया कदम था। 1892 में कार्नेलिया बैचलर ऑफ सिविल लॉ (बीसीएल) परीक्षा पास करने वाली पहली महिला, बल्कि पहली दक्षिण एशियाई महिला बनीं। परीक्षा में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होने के बावजूद, उन्हें डिग्री नहीं दी गई, क्योंकि महिलाओं को वकालत के लिए पंजीकरण करने की अनुमति नहीं थी। 1894 में कार्नेलिया सोराबजी ने भारत लौटने पर, पर्दानशीन महिलाओं की ओर से सामाजिक और सलाहकार कार्य में शामिल हो गयीं, जिन्हें बाहर पुरुष दुनिया के साथ संवाद करने से मना किया गया था। कई मामलों में, इन महिलाओं की काफी संपत्ति होती थी, लेकिन उनकी रक्षा के लिए आवश्यक कानूनी विशेषज्ञता तक पहुंच नहीं थी।

सोराबजी को काठियावाड़ और इंदौर के शासकों के ब्रिटिश एजेंटों से पर्दानशीन की ओर से अनुरोध करने के लिए विशेष अनुमति दी गई थी, लेकिन वह एक महिला के तौर पर अदालत में उनकी रक्षा करने में असमर्थ थीं, उन्हें भारतीय कानूनी व्यवस्था में पेशेवर ओहदा प्राप्त नहीं था। इस स्थिति का समाधान करने की उम्मीद में, सोराबजी ने 1897 में बॉम्बे यूनिवर्सिटी की एलएलबी परीक्षा के लिए खुद को प्रस्तुत किया और 1899 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वकील की परीक्षा में भाग लिया। फिर भी, उनकी सफलताओं के बावजूद, सोराबजी को वकील के तौर पर मान्यता नहीं मिली, जब तक कि 1923 को महिलाओं को अभ्यास करने से रोकने वाले कानून को नहीं बदला गया। प्रांतीय न्यायालयों में महिलाओं और नाबालिगों का प्रतिनिधित्व करने एक महिला कानूनी सलाहकार प्रदान करने के लिए सोराबजी ने 1902 के शुरू में भारत कार्यालय में याचिका दायर करने की शुरुआत की थी। 1904 में, बंगाल की कोर्ट ऑफ वार्ड में लेडी असिस्टेंट नियुक्त किया गया था और 1907 में इस तरह की प्रतिनिधित्व की आवश्यकता के कारण, सोराबजी बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम के प्रांतों में काम कर रही थीं। अगले 20 साल की सेवा में, अनुमानित सोराबजी ने 600 से अधिक महिलाओं और अनाथों को कानूनी लड़ाई लड़ने में मदद की। गरीब, असहाय और अनाथ महिलाओं से कभी कोई शुल्क नहीं लिया। कार्नेलिया सोराबजी ने महिलाओं को वकालत करने का अधिकार दिलाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी और अंततः उनकी जीत हुई। 1920 में ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय ने महिलाओं को डिग्री प्रदान करना शुरू किया और इंग्लिश बार एसोसिएशन ने महिलाओं को वकालत की प्रैक्टिस करने की अनुमति दे दी। अपनी परीक्षाएं पास करने के लगभग 30 साल बाद, कार्नेलिया अपनी डिग्री लेने के लिए ब्रिटेन वापस गईं। 1922 में उन्हें बार में बुलाया गया और वे ब्रिटेन में वकालत करने वाली पहली महिला बनीं।

1924 तक भारत ने महिलाओं के लिए कानूनी पेशे को खोल दिया था और कलकत्ता वापस आकर, कार्नेलिया ने हाईकोर्ट में बैरिस्टर के रूप में दाखिला लिया, जिससे उन्हें भारत में वकालत करने वाली पहली महिला का प्रतिष्ठित पद प्राप्त हुआ। वे 1929 में कलकत्ता हाईकोर्ट से सेवानिवृत हुई। वह कई सामाजिक सेवा अभियान समूहों से जुड़ी हुई थीं, जिनमें भारत में महिलाओं के लिए राष्ट्रीय परिषद, विश्वविद्यालय महिला संघ और बंगाल महिला सामाजिक सेवा लीग शामिल हैं। उन्होंने भारत में महिलाओं के परिवर्तन के आंदोलन पर पश्चिमी दृष्टिकोण थोपने का विरोध किया और सामाजिक सुधार के प्रति सतर्क रुख अपनाया। सोराबजी का मानना ​​था कि जब तक सभी महिलाएं शिक्षित नहीं हो जाती हैं, तब तक सामाजिक व राजनीतिक सुधार संभव नहीं है। सोराबजी 1929 में उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त होने के बाद लंदन में बस गयीं, सर्दियों के दौरान भारत की यात्रा पर आतीं थीं। 6 जुलाई 1954 को लंदन के मैनोर हाउस में ग्रीन लेन्स पर एक नॉर्थम्बरलैंड हाउस में अपने लंदन के घर में उनका निधन हो गया। कार्नेलिया सोराबजी वकील होने के साथ-साथ समाज सुधारक और लेखक भी थीं। उन्होंने कई प्रेरणादायी पुस्तकों का लेखन किया था। महान शख्सियत की जयंती पर आदर्श समाज समिति इंडिया परिवार नमन करता है।

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